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🕉️ सावन के सोमवार की सभी शिव भक्तों को शुभकामनाएं🚩

ब्रह्ममुरारि सुरार्चित लिंगम्
निर्मलभासित शोभित लिंगम्।
जन्मज दुःख विनाशक लिंगम्
तत् प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥1॥

🔱 भावार्थः- जो ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवगणों के इष्टदेव हैं, जो परम पवित्र, निर्मल, तथा सभी जीवों की मनोकामना को पूर्ण करने वाले हैं और जो लिंग के रूप में चराचर जगत में स्थापित हुए हैं, जो संसार के संहारक है और जन्म और मृत्यु के दुखो का विनाश करते है ऐसे भगवान आशुतोष को नित्य निरंतर प्रणाम है।
*हिन्दू एकता संघ परिवार को श्रावण मास एवं प्रथम श्रावणी सोमवार की हार्दिक शुभकामनाएं*
*महादेव की कृपा आप सभी पर बनी रहे*

*यह सुन्दर गीत _महाकाल त्रिपुरारी_ सुनकर श्रावण मास शुभारम्भ करें*

https://youtu.be/dGxaPf0-TEA?si=r64lIdOX9SnMC9fL
*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : ६८/३५० (68/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*तृतीयऽध्याय : कर्मयोग*

*अध्याय ०३ : श्लोक १७ (03:17)*
*यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।*
*आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥*
*शब्दार्थ―*
(तु) परंतु (यः) जो (मानवः) मनुष्य (एव) वास्तव में (आत्मरतिः) आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा में लीन रहने वाला ही रमण (च) और (आत्मतृप्तः) परमात्मा में ही तृप्त (च) तथा (आत्मनि एव) परमात्मा में ही (सन्तुष्टः) संतुष्ट (स्यात्) हो, (तस्य) उसके लिये (कार्यम्) कोई कर्त्तव्य (न) नहीं (विद्यते) जान पड़ता।

*अनुवाद ―*
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।      

*अध्याय ०३ : श्लोक १८ (03:18)*
*नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।*
*न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥*

*शब्दार्थ—*
(तस्य) उस महापुरुषका (इह) इस विश्वमें (न) न तो (कृतेन) कर्म करनेसे (कश्चन) कोई (अर्थः) प्रयोजन रहता है और (न) न (अकृतेन) कर्मोंके न करनेसे (एव) ही कोई प्रयोजन रहता है (च) तथा (सर्वभूतेषु) सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी (अस्य) इसका (कश्चित्) किंचितमात्र भी (अर्थव्यपाश्रयः) स्वार्थका सम्बन्ध (न) नहीं रहता।

*अनुवाद—*
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।

शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में मनुष्यों को वीरत्व धारण कर शत्रुओं को जीतने का उपदेश

मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगन्था परस्याः। सृकꣳ सꣳशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून् ताढि वि मृधो नुदस्व॥

(सामवेद - मन्त्र संख्या : 1873)

मन्त्रार्थ—
हे (इन्द्र) वीर मानव ! तू (भीमः) भयङ्कर, (कुचरः) भूमि पर विचरनेवाले, (गिरिष्ठाः) पर्वत की गुफा में निवास करनेवाले (मृगः न) शेर के समान (भीमः) दुष्टों के लिए भयङ्कर, (कुचरः) भू-विहारी और (गिरिष्ठाः) पर्वत के सदृश उन्नत पद पर प्रतिष्ठित हो। (परावतः) सुदूर देश से (परस्याः) और दूर दिशा से (आ जगन्थ) शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिए आ। (सृकम्) गतिशील, (तिग्मम्) तीक्ष्ण (पविम्) वज्र को, शस्त्रास्त्रसमूह को (संशाय) और अधिक तीक्ष्ण करके (शत्रून्) शत्रुओं को (वि ताढि) विताड़ित कर, (मृधः) हिंसकों को (वि नुदस्व) दूर भगा दे।

व्याख्या -
मनुष्यों को चाहिए कि सिंह के समान वीरता का सञ्चय करके जैसे बाहरी शत्रुओं(अधर्मियों) को पराजित करें वैसे ही आन्तरिक शत्रुओं(काम/क्रोध/लोभादि विकारों)को भी निर्मूल करें और उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हों।

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*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में मनुष्यों को धर्मात्मा आप्त विद्वानों को दुःख न देने का उपदेश*

*अपेतो यन्तु पणयो सुम्ना देवपीयवः। अस्य लोकः सुतावतः । द्युभिरहोभिरक्तुभिर्व्यक्तँयमो ददात्ववसानमस्मै॥*

*(यजुर्वेद - अध्याय 35; मन्त्र 1)*

*मन्त्रार्थ—*
जो (देवपीयवः) विद्वानों के द्वेषी (पणयः) व्यवहारी लोग दूसरों के लिये (असुम्नाः) दुःखों को देते हैं, वे (इतः) यहां से (अप, यन्तु) दूर जावें (लोकः) देखने योग्य (यमः) सबका नियन्ता परमात्मा (द्युभिः) प्रकाशमान (अहोभिः) दिन (अक्तुभिः) और रात्रियों के साथ (अस्य) इस (सुतावतः) वेद वा विद्वानों से प्रेरित प्रशस्त कर्मों वाले जनों के सम्बन्धी (अस्मै) इस मनुष्य के लिये (व्यक्तम्) प्रसिद्ध (अवसानम्) अवकाश को (ददातु) देवे।

*व्याख्या—*
जो लोग आप्त सत्यवादी धर्मात्मा विद्वानों से द्वेष करते, वे शीघ्र ही दुःख को प्राप्त होते हैं। जो जीव शरीर छोड़ के जाते हैं, उनके लिये यथायोग्य अवकाश देकर उनके कर्मानुसार परमेश्वर सुख-दुःख फल देता है।

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*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : ७७/३५० (77/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*तृतीयऽध्याय : कर्मयोग*

*अध्याय ०३ : श्लोक ३५ (03:35)*
*श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।*
*स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥*

*शब्दार्थ—*
(विगुणः) गुणरहित अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर (स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए (परधर्मात्) दूसरोंकी धार्मिक पूजासे (स्वधर्मः) अपनी शास्त्र विधि अनुसार पूजा (श्रेयान्) अति उत्तम है जो शास्त्रानुकूल है (स्वधर्मे) अपनी पूजा में तो (निधनम्) मरना भी (श्रेयः) कल्याणकारक है और (परधर्मः) दूसरेकी पूजा (भयावहः) भयको देनेवाली है।
यही प्रमाण श्री विष्णु पुराण तृतीश अंश, अध्याय 18 श्लोक 1 से 12 तक है।

*अनुवाद—*
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।

*अध्याय ०३ : श्लोक ३६ (03:36)*
*_अर्जुन उवाच_*
*अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: ।*
*अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित: ॥*

*शब्दार्थ—*
(वार्ष्णेय) हे कृष्ण! तो (अथ) फिर (अयम्) यह (पूरुषः) मनुष्य स्वयम् (अनिच्छन्) न चाहता हुआ (अपि) भी (बलात्) बल पूर्वक (नियोजितः) लगाये हुएकी (इव) भाँति (केन) किससे (प्रयुक्तः) प्रेरित होकर (पापम्) पापका (चरति) आचरण करता है?

*अनुवाद—*
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है।

शेष क्रमश: कल

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*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : ७९/३५० (79/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*तृतीयऽध्याय : कर्मयोग*

*अध्याय ०३ : श्लोक ३९ (03:39)*
*आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।*
*कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥*

*शब्दार्थ—*
(च) और (कौन्तेय) हे कुन्तिपुत्र अर्जुन! (एतेन) इस (अनलेन) अग्नि के समान कभी (दुष्पूरेण) न पूर्ण होनेवाले (कामरूपेण) कामरूप विषय वासना रूपी (ज्ञानिनः) ज्ञानियोंके (नित्यवैरिणा) नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका (ज्ञानम्) ज्ञान (आवृतम्) ढका हुआ है।

*अनुवाद—*
और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है।            

*अध्याय ०३ : श्लोक ४० (03:40)*
*इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।*
*एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥*

*शब्दार्थ—*
(इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ (मनः) मन और (बुद्धिः) बुद्धि ये सब (अस्य) इसके (अधिष्ठानम्) वासस्थान (उच्यते) कहे जाते हैं। (एषः) यह कामवासना की इच्छा (एतैः) इन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही (ज्ञानम्) ज्ञानको (आवृत्य) आच्छादित करके (देहिनम्) जीवात्माको (विमोहयति) मोहित करता है।

*अनुवाद—*
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है।

शेष क्रमश: कल

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*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा द्वारा अभ्युदय(उत्तरोत्तर उन्नति)प्राप्ति के साधनों का वर्णन*

*प्रास्य धारा अक्षरन्वृष्ण: सुतस्यौजसा। देवाँ अनु प्रभूषतः॥*

*(ऋग्वेद - मण्डल 9; सूक्त 29; मन्त्र 1)*

*मन्त्रार्थ—*
(प्रभूषतः) प्रभुत्व अर्थात् अभ्युदय को चाहनेवाले पुरुष का कर्तव्य यह है कि वह (देवान् अनु) विद्वानों का अनुयायी बने और (सुतस्य ओजसा) नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त परमात्मा के तेज से अपने आपको तेजस्वी बनावे (वृष्णः अस्य धाराः) जो सर्वकामप्रद है, उसकी धारा से (अक्षरन्) अपने को अभिषिक्त करे।

*व्याख्या—*
परमात्मा उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! तुम विद्वानों की संगति के विना कदापि अभ्युदय को नहीं प्राप्त हो सकते। जिस देश के लोग नाना प्रकार की विद्याओं/कौशलों के वेत्ता विद्वानों के अनुयायी बनते हैं, उस देश का ऐश्वर्य देश-देशान्तरों में फैल जाता है। इसलिये हे अभ्युदयाभिलाषी जनों ! तुम भी विद्वानों के अनुयायी बनो।

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*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : ८०/३५० (80/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*तृतीयऽध्याय : कर्मयोग*

*अध्याय ०३ : श्लोक ४१(3:41)*
*तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।*
*पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥*

*शब्दार्थ—*
(तस्मात्) इसलिए (भरतर्षभ) भारत में श्रेष्ठ पुरुष अर्जुन! (त्वम्) तू (आदौ) पहले (इन्द्रियाणि) इन्द्रियों को (नियम्य) वश में करके (एनम्) इस (ज्ञान-विज्ञान-नाशनम्) ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने वाले (पाप्मानम्) महापापी काम को (ही) अवश्य ही (प्रजही) मार।

*अनुवाद—*
इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।

*अध्याय ०३ : श्लोक ४२ (03:42)*
*इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।*
*मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥*

*शब्दार्थ—*
(इन्द्रियाणि) इन्द्रियोंको स्थूल शरीर से (पराणि) पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म (आहुः) कहते हैं, (इन्द्रियेभ्यः) इन इन्द्रियोंसे (परम्) अधिक (मनः) मन है, (मनसः) मनसे (तु) तो (परा) उत्तम (बुद्धिः) बुद्धि है (तु) और (यः) जो (बुद्धेः) बुद्धिसे भी (परतः) अत्यन्त शक्तिशाली है, (सः) वह परमात्मा सहित आत्मा है।

*अनुवाद—*
इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है।

शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा से सर्व प्रकार के भयों से निर्भयता प्रदान करने की सुन्दर प्रार्थना*

*यतोयतः समीहसे ततो नोऽअभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥*

*(यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र 22)*

*मन्त्रार्थ—*
हे भगवन् ईश्वर! आप अपने कृपादृष्टि से (यतोयतः) जिस-जिस स्थान से (समीहसे) सम्यक् चेष्टा करते हो (ततः) उस उससे (नः) हमको (अभयम्) भयरहित (कुरु) कीजिये (नः) हमारी (प्रजाभ्यः) प्रजाओं से और (नः) हमारे (पशुभ्यः) गौ आदि पशुओं से (शम्) सुख और (अभयम्) निर्भय (कुरु) कीजिये।

*व्याख्या—*
हे दयालु परमेश्वर! जिस-जिस देश/स्थान से आप सम्यक् चेष्टा करते हो उस-उस देश से हमको अभय करो, अर्थात् जहाँ-जहाँ से हमको भय प्राप्त होने लगे, वहाँ-वहाँ से सर्वथा हम लोगों को अभय (भयरहित) करो तथा प्रजा से हमको सुख करो, हमारी प्रजा सब दिन सुखी रहे, भय देनेवाली कभी न हो तथा पशुओं से भी हमको अभय करो, किंच किसी से किसी प्रकार का भय हम लोगों को आपकी कृपा से कभी न हो, जिससे हम लोग निर्भय होके सदैव परमानन्द को भोगें और निरन्तर आपका राज्य तथा आपकी भक्ति करें।

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*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस: १२८/३५० (128/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु आत्मसंयमयोग नाम षष्ठोऽध्यायः*

*अध्याय ०६ : श्लोक २५ (06:25)*
*शनै: शनैरुपरमेद्‍बुद्ध्या धृतिगृहीतया।*
*आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥*

*शब्दार्थ—*
शनै:—धीरे-धीरे; शनै:—एकएक करके, क्रम से; उपरमेत्—निवृत्त रहे; बुद्ध्या— बुद्धि से; धृति-गृहीतया—विश्वासपूर्वक; आत्म-संस्थम्—समाधि में स्थित; मन:— मन; कृत्वा—करके; न—नहीं; किञ्चित्—अन्य कुछ; अपि—भी; चिन्तयेत्—सोचे।

*अनुवाद—*
धीरे-धीरे, क्रमश: पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।

*अध्याय ०६ : श्लोक २६ (06:26)*
*यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।*
*ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥*

*शब्दार्थ—*
यत: यत:—जहाँ-जहाँ भी; निश्चरति—विचलित होता है; मन:—मन; चञ्चलम्— चलायमान; अस्थिरम्—अस्थिर; तत: तत:—वहाँ-वहाँ से; नियम्य—वश में करके; एतत्—इस; आत्मनि—अपने; एव—निश्चय ही; वशम्—वश में; नयेत्—ले आए।

*अनुवाद—*
मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।

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*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा और धर्मरक्षक राजा की स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना*

*नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमैरमित्रमर्दय॥*

*(सामवेद » मन्त्र संख्या - 11)*

(देवता: अग्निः ऋषि: आयुङ्क्ष्वाहिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड: आग्नेयं काण्डम्)

*पद पाठ—*
न꣡मः꣢꣯ । ते꣣ । अग्ने । ओ꣡ज꣢꣯से । गृ꣣ण꣡न्ति꣢ । दे꣣व । कृष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मैः꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्र꣢म् । अ꣣ । मि꣡त्र꣢꣯म् । अ꣣र्दय ॥११॥

*मन्त्रार्थ—*
हे (देव) ज्योतिर्मय तथा विद्या आदि ज्योति के देनेवाले (अग्ने) लोकनायक जगदीश्वर अथवा राजन् ! (कृष्टयः) मनुष्य (ते) आपके (ओजसे) बल के लिए (नमः) नमस्कार के वचन (गृणन्ति) उच्चारण करते हैं, अर्थात् बार-बार आपके बल की प्रशंसा करते हैं। आप (अमैः) अपने बलों से (अमित्रम्) शत्रु को (अर्दय) नष्ट कर दीजिए ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है।

*व्याख्या—*
हे जगदीश्वर तथा हे राजन् ! कैसा आप में महान् बल है, जिससे आप निःसहायों की रक्षा करते हो और जिस बल के कारण आपके आगे बड़े-बड़े दर्पवालों के भी दर्प चूर हो जाते हैं। आप हमारे अध्यात्ममार्ग में विघ्न उत्पन्न करनेवाले काम, क्रोध आदि षड्रिपुओं को और संसार-मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करनेवाले मानव शत्रु-दल को अपने उन बलों से समूल उच्छिन्न कर दीजिए, जिससे शत्रु-रहित होकर हम निष्कण्टक आत्मिक तथा बाह्य स्वराज्य का भोग करें।

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‎Garvitsanatani से ऑडियो
2024/09/28 13:21:40
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