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आए,कदाचित धर्म के शोधन, राजशोधन, व्यासपीठ शोधन, मठ शोधन, और मुलसिद्धान्त शोधन की प्रक्रिया आप से ही शुरू होगी। सत्य स्वयं ईश्वर स्वरूप है सत्य ही ईश्वर है, सत्य और धर्म के पक्ष में रहे न कि व्यक्तिगत या संस्थागत पक्ष में।

*भगवान सनातन धर्म के समष्टि शोधन का मार्ग प्रशस्त करें ऐसी प्रार्थना के साथ त्रिवेदी जी का सर्व को अभिवादन।*

सर्वेशां स्वस्तिर्भवतु ।
सर्वेशां शान्तिर्भवतु ।
सर्वेशां पुर्णंभवतु ।
सर्वेशां मङ्गलंभवतु ।
(यह मूल आर्टिकल है,इनकी विकृति या दुरुपयोग की मैं जिम्मेदारी नहीं लेता मूल आर्टिकल मेरे स्वयं के पृष्ठ पर है जो लिंक मैंने दी हुई है।)
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अभी और भी शोध जारी है, आगे और भी चीज प्रकाशित होगी तो निर्भयता से सत्य का पक्ष जरूर पड़ने पर इसी विषय पर एक और आर्टिकल बनाकर सत्य और धर्म का पक्ष रखा जाएगा।

श्रीमन्नारायण 💐
पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः 🚩 गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ९३*

_दुःख की प्रातिभासिक सत्ता है, वास्तविक नहीं_

आजकल चारों ओर लोग अशान्त और दुःखी दिखाई देते हैं। इसका कारण यथार्थ ज्ञान का अभाव है । विवेक पूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाहरी परिस्थितियाँ हमें तब तक प्रभावित नहीं कर सकतीं, जब तक हम दृढ़ता पूर्वक उनसे अप्रभावित रहने के लिये उद्योग-शील रहते हैं। जब हम अपने मन से बाह्य परिस्थितियों को सुखद या दुःखद मान लेते हैं, तभी वे हमें सुखी-दुःखी बनाती हैं । यदि निरन्तर यह भाव बना रहे कि हम स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर, इन तीन शरीरों से परे शुद्ध सच्चिदानन्दमय आत्मा हैं, तो किसी भी परिस्थिति में दुख की अनुभूति नहीं हो सकती ।

प्रारब्ध भोग टाला नहीं जा सकता। ज्ञानी भी उसे भोगना है और अज्ञानी भी। अन्तर केवल यह है कि ज्ञानी तो प्रसन्नतापूर्वक अच्छा-बुरा सभी प्रकार का प्रारब्ध भोगता है और अज्ञानी रोते हुये भोगता है। जब यह निश्चित है कि प्रारब्ध अवश्य भोगना पड़ेगा, तब उसे प्रसन्नता के साथ ही क्यों न भोग लिया जाय । दुःख यथार्थ में है ही नहीं । उसको तो प्रातिभासिक सत्ता है जो केवल भ्रम के कारण दिखाई देती है । जैसे किसी कमरे में पड़ी हुई रस्सी को अन्धकार में देखने वाला सर्प का अनुमान करके भय से काँपने लगता है, परन्तु जिसने सूर्य के आलोक में उस रस्सो को देखा है वह न तो कम्पित होता है और न व्याकुल । यद्यपि वह उन्हीं लोगों के बीच में है जो रस्सी में सर्प को कल्पना करके भयभीत हो रहे हैं । इसी प्रकार से ज्ञानी भो आपके बीच में रहता है, परन्तु दुःख उसे विचलित नहीं कर सकते ।

आप लोग विचार कर देखिये कि रज्जु तो सबके लिये समान था, परन्तु जो प्रकाश में उसके यथार्थ स्वरूप को देख चुका था वह अंधेरे में उनका देखकर कंपित नहीं हुआ । जो उसके स्वरूप को नहीं जानते थे वे ही भ्रम से उसे सर्प मानकर भयभीत और दुःखी हुये । यदि किसी प्रकार उन लोगों का भ्रम दूर हो जाता तो फिर उनके लिये दुःख का अस्तित्व ही नहीं रहता । इसका निष्कर्ष यही है कि दुःख का कारण है भ्रम । भ्रम की निवृत्ति हो सकती है, इसीलिये दुःख की भी निवृत्ति हो सकती है। यदि दुःख भ्रम-मूलक न होता और पारमार्थिक सत्तावान् होता तो उसकी निवृत्ति विधाता भी नहीं कर सकते थे; क्योंकि सत् वस्तु का अभाव कभी भी नहीं होता ।

भ्रम - नाश दो प्रकार से होता है । इसे समझने के लिये उसी रज्जुवत् सर्प के दृष्टांत को ले लीजिये । दीपक लेकर रज्जु के वास्तविक स्वरूप को देख लेने पर उसमें सर्प का भ्रम मिट सकता था । रस्सी से तो कोई भयभीत होता नहीं, केवल सर्प की कल्पना ही भय कम्प का कारण थी । अतः अधिष्ठान का प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर उसका अस्तित्व ही नहीं रहता।

भ्रम-नाश का दूसरा उपाय है - जानने वाले की बात पर विश्वास करना । जिसने उस रज्जु को दिन के प्रकाश में ठीक-ठीक समझ लिया है, उसकी बात पर विश्वास करके भी भय को मिटाया जा सकता है।

विवेक, वैराग्य, षट्-सम्पत्ति, मुमुक्षुता इत्यादि साधनों से सम्पन्न होकर ज्ञानी समाधि के द्वारा जगत् और ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करता है । वह जानता है कि आत्म और अनात्म सभी रूपों में एक परमात्मा ही व्याप्त है । अतः जगत् में रहते हुए भी वह द्वन्द्व रहित हो जाता है । समाधि-काल में प्राप्त किये हुये ज्ञान के बल से वह व्यवहार काल में भी कभी व्यथित नहीं होता; क्योंकि जहाँ अज्ञानी लोग भय देखते हैं वहाँ भी ज्ञानी ईश्वर को देखता है । चराचर सम्पूर्ण जगत् का एकमात्र अघिष्ठान परमात्मा हो है । जैसे सर्प के अधिष्ठान रज्जु को जान लेने पर भय मिट जाता है, उसी प्रकार जगत् के अधिष्ठान परमात्मा को जान लेने पर भय के लिये कहीं स्थान ही नहीं रहता।

साधनहीनता के कारण जो परमात्मा का अपरोक्ष ज्ञान करने में असमर्थ हैं, वे भी यदि शास्त्र और ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुओंके शब्दों में श्रद्धा और विश्वास करना सीखें तो बहुत अंशों में उनका दुःख दूर हो जायेगा । जब तक अन्तःकरण में भ्रम बना हुआ है, तब तक लाख उपाय करने पर भी दुःख से सदैव के लिये छुटकारा नहीं मिल सकता । व्यथित मनुष्य को यदि मदिरा पिलाकर बेहोश कर दिया जाय तो अवश्य कुछ क्षणों के लिये, जब तक मदिरा का नशा रहेगा, वह अपनी व्यथा भूला रहेगा। परन्तु नशा उतरते ही वह पुनः उसी अवस्था को प्राप्त हो जायेगा। इसी प्रकार जगत् के विषयों में मन फँसा कर कोई दुःखों से छुटकारा पाना चाहे तो यह सम्भव नहीं ।
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आत्मा का ज्ञान होने पर सम्पूर्ण दुःख सदैव के लिये नष्ट हो जाते हैं। एक ही चैतन्य भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा से जाता है। परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मारूप से व्याप्त है । आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं । जो आत्मा है वही चैतन्य जीव भी कहलाता है । भेद केवल उपाधि का है । उपाधि - युक्त चैतन्य ही जीव कहलाता है और सम्पूर्ण उपाधियों को त्याग देने पर वही चैतन्य आत्मा है । आत्मा और जीव का भेद ऐसा है जैसे धान और चावल का जब तक एक भूसी बनी हुई है उसे धान कहा जाता है और जब उसकी भूसी हटा दी जाती है तब वही चावल कहलाता है | तत्वतः जो धान है वही चावल ।

धान और चावल का व्यावहारिक भेद यह है कि धान में जल और मृत्तिका के योग से अंकुर उत्पन्न हो जाता है, परन्तु चावल चाहे जितने समय तक जल मृत्तिका के संयोग में रहे उसमें अंकुर नहीं हो सकता । इसी प्रकार जब तक शुभाशुभ कर्मों का बन्धन है, तब तक वही चैतन्य जीव है और कर्म-बन्धन क्षीण होने पर वह शुद्ध बुद्ध आत्मा है । जीव का पुनर्जन्म ही उसका अंकुरित होना है। शुभाशुभ कर्म जीव के के लिये भूसी के समान है। भूसी हटा देने से फिर अंकुर नहीं हो सकता । अर्थात्, शुभाशुभ कर्मों का परित्याग हो जाने पर फिर पुनर्जन्म नहीं होता ।जब तक भूसी लगी हुई है तब तक धान, धान ही है ।

यद्यपि चावल भी उसी में है। परन्तु उसे उबालकर कोई खा नहीं सकता । यदि कोई धान उबाल कर किसी को खाने के लिये देवे तो उसे पागल ही समझा जायगा । ठीक इसी प्रकार जब तक कर्म - बन्धन नष्ट नहीं किया जाता, तब तक जीव परमानन्द की अनुभूति के वञ्चित रहता है ।

अज्ञान से मोहित हुआ जीव कर्म के बन्धनों में पड़ता है । अज्ञान ही भ्रम कहलाता है। इनकी निवृत्ति यथार्थ ज्ञान से होता है । ज्ञान प्राप्त करने के लिये शास्त्र और सद्गुरु की सहायता अपेक्षित है । बिना गुरु के कोई जीवन भर माथा रगड़े, परन्तु आत्मज्ञान नहीं हो सकता। नदी पार करने वाले दस पुरुषों के दृष्टान्त में जब तक एक महात्मा ने आकर उनका भ्रम दूर नहीं कर दिया, तब तक वे अपने एक साथी के डूबने के भ्रम में विलाप करते रहे । जब महात्मा ने गणना करवा कर बतलाया कि 'दशमस्त्वमसि' दसवें तुम हो, तब उनका शोक नष्ट हुआ । इसी प्रकार गुरु के द्वारा ही 'तत्वमसि' का यथार्थ बोध होता है ।

भगवान् के अस्तित्व और उसकी दयालुता में अपना विश्वास दृढ़ करो । धैर्यपूर्वक प्रारब्ध भोग करते हुये अपने-अपने वर्ण और आश्रम के धर्म का ठीक रूप से पालन करते जाओ । स्वधर्म का पालन करते रहने से अन्तःकरण पवित्र होगा और तभी आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त होगी। ज्ञान-प्राप्ति के लिये व्यवहार से दूर भागने का आवश्यकता नहीं । संसार का व्यवहार तो चलाते रहो, परन्तु मन को उसमें न फँसाओ । संसार में जो राग हो गया है। वही बन्धन का हेतु है, संसार बन्धन का हेतु नहीं है । अतःराग का त्याग करके अक्षय सुख का अनुभव करो। हम किताबी बातें नहीं कहते, यह सब हमारी अनुभूत बातें हैं । यदि आप निष्ठापूर्वक इनका पालन करें तो अवश्यमेव सुखी हो सकते हैं ।

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिक ब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ९४*

संसार शोक-सागर हो है
आत्म-ज्ञानी ही इसे पार कर सकता है

विचार - दृष्टि से देखा जाय तो संसार में सुख का लेश मात्र भी नहीं है । यहाँ सुख की भावना करना ऐसा ही है, जैसे ससुराल की गाली सुनकर प्रसन्न होना। गाली तो गाली ही, है, उसमें प्रसन्नता कैसी ? परन्तु नहीं, अनिष्ट में भी इष्ट बुद्धि रखने वाले लोग हैं। जैसे नाली में पड़ा हुआ मद्यप नाली में पड़े रहने में ही सुख मानता है; कोई उसे हाथ पकड़ कर बाहर निकालना चाहे ता भी प्रयत्न करके वह वहीं पड़ा रहना चाहता है। इसी प्रकार संसार में सुख की भावना करने वालों का हाल है। संसारी पदार्थों में सुख का लेश मात्र नहीं, संसार तो शोक-सागर ही है । लिखा है कि – 'तरति- शोकमात्मवित्' शोकोपलक्षित जो अज्ञान् है उसको आत्मवित् ही करता है । श्रुति कहती है—

'आचार्यवान् पुरुषो वेद'
अर्थात्, आचार्यवान् को ही ज्ञान होता है ।

'धनवान् पुरुषो वेद' 'पुत्रवान् पुरुषो वेद' 'स्त्रीवान् पुरुषो वेद' आदि यह नहीं कहा । 'आचार्यवान् पुरुषो वेद' यही श्रुति ने कहा है ।

इसलिये शोक-सागर, संसार सागर पार होने के लिए आत्म-ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है ।

*उपदेश ९५*
भवसागर से पार होने का प्रयत्न करो

नौकारूढ़ होकर भी यदि डूब गये
तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा

प्रत्येक मनुष्य यह चाहता है कि लोक में वह सुखी रहे और परलोक भी न बिगड़े । जो परलोक को नहीं जानता वह नास्तिक है। नास्तिक भी यह चाहता है कि वह सुखी और शान्त रहे । आस्तिक लोग दोनों लोक बनाना चाहते हैं परन्तु सुख-शान्ति केवल इच्छा मात्र से तो हो नहीं सकती । इच्छा तो केवल प्रयत्न कराने वाली होती है, सुख शान्ति प्रयत्न करने से ही मिल सकती है । इसलिए सुख शान्ति के लिए प्रयत्न करो और ऐसा प्रयत्न करो जो वैध हो । वैध प्रयत्न वही है जैसा शास्त्र कहता है। किसी कवि ने कहा है

न पीतं जाह्नवी तोयं
न गीतं भगवद् यशः
न जाने जानकी जाने जाने
यमाह्वाने किमुत्तरम् ।

गंगा-जल का पान नहीं किया। अब देखना यह है कि गंगाजल पान करने से होता क्या है ? गंगाजल पान करने से पाप नष्ट होते हैं, पाप नष्ट होने से बुद्धि शुद्ध होती है और बुद्धि शुद्ध हो जाने पर भगवान् की ओर प्रेम बढ़ता है। ऐसा गंगा-जल यहाँ उपलब्ध है। सरल से सरल यह साधन यहाँ प्राप्त ही है ।

भगवान् की भक्त वत्सलता का चिन्तन और गान ही भगवान् का गुणानुवाद है । हिरण्यकश्यपु के वध के लिये भगवान् का जड़ से उत्पन्न होना उसी प्रकार है, जिस प्रकार 'पिपीलिका मारने के लिए तोप लगाना । भगवान् के लिए यह साधारण सी बात रही। भगवान तो उसकी मति ही बदल सकते थे । फिर प्रह्लाद कार्य तो तभी हो गया जब-जब जिस-जिस तत्त्व से प्रह्लाद को कष्ट दिया गया तब-तत्र प्रह्लाद वही वही तत्त्व हो गये । जब वे अग्नि में डाले गये तो अग्नि हो हो गये । अग्नि, अग्नि को क्या जलायेगा ? जब प्रह्लाद जल में डुबोये गये तो वे जल तत्त्व ही हो गये । परन्तु भगवान् ने 'ऐसा इसीलिए किया कि आगे के भक्तों को विश्वास हो, आश्वासन रहे । अपने यश के विस्तार के लिए वे प्रह्लाद के सामने प्रत्यक्ष प्रकट हुए । सांसारिक लोग कह सकते हैं कि भगवान् को अपने यश-विस्तार के लिए क्या पड़ी है । परन्तु यह भगवान् की भक्त-वत्सलता ही थी कि जिसके आगे के भक्त लोग गुणानुवाद करके, उनका यशगान करके, भवसागर को पार करें। इसी लिये इस प्रकार भगवान् प्रह्लाद के लिए नृसिंह रूप में पैदा हुए ।

द्रौपदी के कष्ट में भगवान् चीर ही हो गये । इस प्रकार भगवान् का स्मरण, चिन्तन और गान करने से बुद्धि शुद्ध होती है और भगवान् में विश्वास होता है। भगवान् को जानने का साधन वेद-शास्त्र पर विश्वास करना भी है। यदि वेद-शास्त्र पर विश्वास न करोगे, तो भगवान् की सत्ता पर भी विश्वास न होगा । भगवान् की सत्ता पर विश्वास न करने से संशय बना रहेगा। संशयवान् पुरुष का न लोक ही बनता है और न परलोक ही ।

भगवान् को जानोगे नहीं, विश्वास नहीं करोगे, तो ढूंढोगे कहाँ ? जैसे हमको रामनगर जाना है तो हम नक्शे में देख कर पता लगावेंगे कि रामनगर कहाँ है । तब आत्म-भवन में रुकेंगे। नक्शा है वेद-शास्त्र | वेद-शास्त्र द्वारा भगवान् को जानो ।
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परन्तु भगवान् को जान लेने मात्र से तो काम चलेगा नहीं, कुछ अनुभव भी करो । अनुभव बहुत बड़ी चीज है । एकान्तवास भगवान् के ढूंढ़ने का अच्छा साधन है । अतः एकान्त में रह कर अनुभवी महात्मा बनो। इस प्रकार साधू-सन्यासी ही नहीं, संसारी भी कर सकते हैं, क्योंकि संसारियों से ही तो महात्मा होते हैं । इनकी कोई खदान नहीं,इन्हीं माताओं के पेट से महात्मा भी हुए हैं । आज जो दुराचार-पापाचार रत हैं कल वे ही उच्च कोटि के महात्मा हो सकते हैं । के एक समय को बात है, हम उपनिषद् का पाठ कर
रहे थे । एक परमहंस आए और कहा कि क्यानआप भी पूजा-पाठ करते हैं ? हमको तो बड़ा आश्चर्य हुआ । हमने कहा, आप से अधिक आश्चर्य तो हमको हुआ कि रिटायर्ड होकर आप दफ्तरों में धक्का खाते-फिरते हो। हम तो आश्रमी हैं, संन्यासी हैं । आप तो अपने को परमहंस कहते हो, परमहंस तो आश्रमातीत होता है। कौन संसार में व्यभिचार कर रहा है, कौन पूजा-पाठ कर रहा है - यह देखते-फिरना तो आप का काम नहीं है । आप की वृत्ति तो निरन्तर स्वरूपाकार रहनी चाहिये । हम तो प्रिन्सिपल हैं; स्वयं पाठ-पूजा करेंगे क्योंकि दूसरों को सिखाना है। प्रयोजन यह है कि मन इतना बेईमान है कि वेदान्त के सहारे उपासना छोड़ देने परं न जाने कब फिसल जाय । अच्छे-बुरे कर्म तो प्रारब्धानुसार होते ही रहते हैं । उपासना तो अवश्य ही होती रहनी चाहिये ।

जब तक प्रारब्ध हैं, कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा । इसलिए भगवान् का चिन्तन करते हुए विहिताविहित का विचार करके कर्म करो । विहताविहित का निर्णय करने वाला शास्त्र ही हैं; इसका निर्णय कोई कमेटी नहीं कर सकती। हमारे संचालक तो वेद-शास्त्र ही हैं । व्यवहार चलाते रहो । मन भगवान् में लगाओ । अन्त समय में भगवान् का चिन्तन करते हुए जाओ । ऐसा न कर पाये तो कुछ भी नहीं कर पाये । नौकारूढ़ होकर भी नदी में डूब गये ।

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हर हर शंकर 💐🚩
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*उपदेश - ९६*

सिवाय परमात्मा के कोई सहायक नहीं

इस संसार में रहना किसी को नहीं। यहाँ तो धर्मशाले का निवास है । आ गये हो, दुर्लभ मानव शरीर मिल गया है,भव- सागर से पार हो सकते हो । इसी शरीर से ज्ञान-भक्ति पैदा कर सकते हो । अब न किया, अब न बनाया, तो कब बनाओगे ? परमात्मा व्यापक है, सर्वत्र है; किन्तु हम एकदेशीय हैं। इसलिए हम व्यापक परमात्मा को भक्ति द्वारा एक देश में प्रकट करें, तभी हमारा काम बनेगा। साकार-निराकार हैं क्या ? काष्ठ में अग्नि सर्वत्र परिपूर्ण है, परन्तु आप उससे जलते नहीं । चूल्हे में चैला लगा कर चाहो कि रोटी बन जाय तो क्या रसोई बन जायगी ? उसी काष्ठ को घर्षण करके अग्नि प्रकट कर लो तो सब काम सिद्ध हो जायगा ।

परमात्मा अखण्ड है, प्रत्येक देश-काल-वस्तु में है। कहीं भी कोई ऐसी वस्तु नहीं, जहाँ परमात्मा न हो । सर्वशक्तिमान् होते हुए भी परमात्मा में एक शक्ति नहीं है। वह यह कि यदि वह चाहे भी तो हम से अलग नहीं हो सकता। अब आप ही बतावें,.इतना हमारा और परमात्मा का अभेद होते हुए भी हम दुखी हैं, तो किसकी ओर से गलती है ?

द्रौपदी का उदाहरण देखिये । पाँचो पति एक से एक वीर, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य एक से एक महारथी बैठे थे । एक कुलाङ्गना की बेइज्जती की जा रही थी। संसारियों का इस्तीफा देखो | इससे बड़ा ज्वलन्त उदाहरण और क्या मिल सकता हैं ?

आप चाहें कि पिता, पुत्र, भाई, बहिन, पति से कुछ सहायता मिल सकती है, तो सर्वथा असम्भव । परमात्मा न करे कोई आपत्ति का समय आये, नहीं तो सब सम्बन्धी इस्तीफा दे देंगे ।

सिवाय परमात्मा के कोई सहायक नहीं होगा। ऐसी भावना ही अनर्गल है कि अमुक हमारी रक्षा करेगा। जब द्रौपदी की रक्षा के लिये बड़े-बड़े महारथियों ने इस्तीफा दे दिया तो तुम्हारे सहायकों को क्या गिनती है ! संसारियों से केवल शिष्टाचार चलाये जाओ, ये रागास्पद नहीं हैं। द्रौपदी को जब संसारियों से निराशा हो गई, तब भगवान् आये । प्रह्लाद के लिए जड़ से प्रकट हुए। यह भगवान् की व्यापकता है। परन्तु व्यापक परमात्मा से हमारा लाभ नहीं । व्यापक अग्नि से आपका काम नहीं हो सकता । काम के लिये काष्ठ का घर्षण करके अग्नि को एक देश में लाना ही पड़ेगा। इसी प्रकार परमात्मा को भी उपासना द्वारा एक देश में लाने से ही कल्याण है । भगवान् को देश में आने में कोई आपत्ति भी नहीं है, क्योंकि वे स्वयं कहते हैं कि-
-
यदा यदा हि धर्मंस्य, ग्लानिर्भवति भारत !
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ||

इतना ही नहीं, भगवान् यह भी कहते हैं कि :—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

अर्थात्, जो जिस प्रकार से मेरा स्मरण करता है, मैं उसी प्रकार से उसका स्मरण करता हूँ। कितना बड़ा आश्वासन भगवान् दे रहे हैं । अब भी हम न चेते तो हमारा दुर्भाग्य !

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*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ९७*

दुर्जन के लिये दुर्जन बनना
निन्दक के लिये स्वयं निन्दक बन जाना उचित नहीं

“क्षमा खड्गः करे यस्थ, दुर्जनः किं करिष्यति"
अर्थात् क्षमा रूपी खड्ग जिसके हाथ में हैं उसका दुर्जन कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।

"अतृणे पतिते त्रहिः स्वयमेवोपशाम्यति"
जहाँ तृण न हो वहाँ अग्नि का अङ्गार गिरे भी तो क्या करेगा ? स्वयं ही शान्त हो जायगा । इसी प्रकार जो क्षमावन्त हैं, उनके प्रति किए गए दुर्जनों के दुर्व्यवहार स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं। इसी लिये सदैव ही उपेक्षावर्ती का सहारा लेना चाहिए ।

इसी प्रकार मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन्हीं चार वृत्तियों में रहते हुए व्यवहार चलाना चाहिये । और किसी पाँचवीं वृत्ति का सहारा नहीं लेना चाहिये। ऐसा करोगे तो कभी अशान्त होने का अवसर नहीं आयेगा। धन के दुरुपयोग के सम्बन्ध में यह बात है कि नम्बर एक का दुरुपयोग यह है कि पापाचार - दुराचार में धन खर्च किया जाय। नम्बर दो का दुरुपयोग यह है कि पूर्व की कमाई खाकर आगे के लिए कुछ संचय न किया जाय । धन को बुरे कामों में न भी लगाओ तब भी यदि उसको सत्कार्य में न लगाया गया तो उसका दुरुपयोग ही है। दुष्कर्म में धन का उपयोग न करते हुये यदि सत्कर्म में नहीं लगाया जा रहा है तो यही नम्बर दो का दुरुपयोग है। धन का उचित उपयोग यही है कि उसकी 'प्रथम गति हो अर्थात् सत्पात्र में उसका व्यय हो ।
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जीवन के सदुपयोग के लिये सचेष्ट रहना चाहिये । आजकल लोग जाति-पांति के फेर में पड़ कर ही व्यर्थ के वर्गवाद् में जीवन का अमूल्य समय नष्ट करते हैं । किसी जाति में जन्म हो गया, बस भगवान् को छोड़कर जातियों के संगठन के फेर में पड़ जाते हैं । जहाँ कहीं जिस जाति में जन्म हो गया हो, उसी से किसी तरह जन्म-मरण रूपी कारागार से निकलने का प्रयत्न करना चाहिये, न कि एक जाति रूपी कारागार का समर्थन करते रहो। अपनी जाति-पाँति से इतना ही लाभ उठाना चाहिये कि उसमें जो वेद-शास्त्रानुसार अच्छी बातें हों उन्हें तो अपनाओ और जो वेद शास्त्र के विरुद्ध प्रथायें हों उनसे कोई सम्बन्ध न रक्खो, उनका त्याग कर दो। इसी में जात्याभिमान की सार्थकता है । यह निश्चय रखना चाहिये कि अच्छी बात वही है जो वेद-शास्त्र के अनुकूल है । केवल हमारे विचार से कोई बात अच्छी-बुरी नहीं हो सकती । अच्छी बात वही है, जिसे वेद-शास्त्र अच्छा कहता है और बुरी बात वही है जिसे वेद-शास्त्र बुरा कहता है ।

धन की इच्छा हो तो ऐसे धन का संग्रह करो जो साथ जाय । जिसको यहीं छूट जाना है ऐसे 'टेम्पररी' धन का संग्रह करने से क्या लाभ ?
यह बात जरूर है कि अविवेक कारण -
"धनाशा जीविताशा च जीर्यतोऽपिनजीर्यते ।"

धन संग्रह करने की और जीते रहने की इच्छा जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर भी नहीं मिटती । इस पर एक दृष्टान्त है कि एक बहुत बृद्धा स्त्री थी। किसी तरह से लकड़ी बीन-बीन कर बेचकर अपनी आजीविका चलाती थी । उसका जीवन कष्टमय था । एक दिन जंगल में लकड़ी बीनते-बीनते लोभ के कारण उसने बहुत बड़ा गट्ठर बाँध लिया जो उससे उठाया नहीं उठता था । गट्ठर उटाने का उसने कई बार प्रयत्न किया, परन्तु उठा न सकी । अन्त में निराश होकर बड़े दुःख के साथ उसने कहा कि यदि किसी तरह मृत्यु आ जाती तो मैं इस जंजाल से छूट जाती । उसने इतना कहा ही था कि मृत्यु सामने आकर खड़ी हो गई । मृत्यु ने कहा कि कहिये माताजी किसलिए बुलाया है ? वृद्धा ने पूंछा कि तुम कौन हो? मृत्यु ने कहा कि मैं मृत्यु हूँ; आपने अभी मुझको बुलाया, इस लिए मैं आई हूँ । बृद्धा ने कहा कि अच्छा हुआ, तुम आ गए। आ इसी गट्ठे को उठाने के लिए बुलाया था ।

तात्पर्य यह है कि प्राणी चाहे जिस स्थिति में हो, वह मरना नहीं चाहता। परन्तु यदि केवल खाते-पीते हुये ही जीते रहना है तो ऐसे जीने से कोई लाभ नहीं । जीना वही सार्थक है कि जो कुछ आगे के लिए बनाया जाय । यदि केवल विषय- भोग के लिए जीना है तो इस प्रकार पाप संग्रह करते हुए जीने से तो मर जाना ही अच्छा है।

व्यवहार में यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि अपने से यदि किसी की भलाई न हो सके, तो किसी की बुराई भी न करना । साथ ही साथ भगवान का भजन-पूजन कुछ न कुछ अवश्य करते रहना । मन तो चंचल है, मन लगे या न लगे, भजन- पूजन में समय खर्च करना चाहिये । यदि अभी नहीं लगता है तो थोड़े दिनों में लगने लगेगा, परन्तु करते जाना चाहिये । जिस गिलास में पीनी पीते हो, उसी गिलास से थोड़े दिनों में प्रेम हो जाता है, क्योंकि जब दूसरा गिलास आता है तो ऐसा लगता है कि वह पुराना गिलास कहाँ गया। इसी प्रकार जिस छड़ी को रोज हाथ में लेते हो, कुछ दिनों में उससे प्रेम हो जाता है। वैसे ही भगवान् के नाम को जपते जपते, उस नाम में भी छड़ी - गिलास के समान प्रेम हो जाएगा। इसलिए बिना मन के भी
भगवान् का नाम लेते रहना चाहिये, मन कहीं तो जाने दो ।

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
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परमधर्मसंसद१००८
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*उपदेश - ९८*
_भगवान के भजन और स्वधर्म पालन से कल्याण होगा_
_जाति-पांति कल्याण कारक नहीं_

जन्म तो कर्म के आधीन है, परन्तु भगवान् की दयालुता कर्म के आधीन नहीं है, वह भाव के आधीन है। कोई भी चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो, शूद्र हो - भगवान् में भाव बना कर भगवान् को प्राप्त कर सकता है । भगवान् का गुणानुवाद मनुष्यमात्र कर सकता है; ऐसा नहीं कि केवल ब्राह्मण ही भगवान् का गुणानुवाद कर सके। भक्त तो चारों वर्णों के लोग हो सकते हैं, परन्तु आचार्य चारों वर्ण के लोग नहीं हो सकते । इसके लिये तो आदि-शङ्कराचार्य का डंका है कि-
"यावत् वित्तोपार्जन सक्तः तावन्निज-परिवारोक्तः,
पश्चात् धावति जर्जर देहे वाती कोऽपि न पृच्छति गेहे।"

इसलिये -
“भज गोविन्दं, भज गोविन्दं । भज गोविन्दं मूढ़मते ।"

कोई भी हो, किसी जाति का हो वृद्धावस्था आने के पहले ही सचेत होकर भगवान् का भजन-पूजन पर्याप्त कर ले, इसी में कल्याण है। कल्याण किसी जाति में पैदा होने से नहीं होगा। कल्याण तो होगा भगवान् के भजन से और भगवान् के भजन का मनुष्य मात्र को अधिकार है। ब्राह्मण होने से ही मुक्त हो जायगा, ऐसी बात नहीं है । यदि भगवान् की भक्ति है तब तो ठीक है, नहीं तो ब्राह्मण भी नरक का अधिकारी हो सकता है और भक्तिमान् शूद्र भगवान् को प्राप्त कर सकता है। जहाँ कल्याण होता है, वहाँ न कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है। परमार्थ में कोई भेद ही नहीं है, भेद तो व्यवहार में है।

*उपदेश ९९*
_त्याग और ग्रहण से मुक्त होकर_
_स्वरूपानन्द में निमग्न रहो।_

त्यागोगे क्या ?

संसार तो पहले से ही त्यक्त है । शब्द, रूप, रस, गन्ध आदि जितने पदार्थ हैं वे तो तुमसे अलग हैं ही, उनकी सत्ता ही तुमसे भिन्न है। जब संसार तुमसे अलग ही है तो उसको त्यागोगे क्या ? तुम्हारे त्यागने के पहले ही वह तुम से व्यक्त।है, अलग है। इसलिए किसी के त्याग की बात कहना या।त्याग का भाव मन में बनाना मिथ्या दम्भ ही है। मरे को मारने से क्या गौरव ? कोई मरे हुए शेर को गोली मार कर कहे कि मैने शेर का शिकार किया है - वह इसी तरह की बात है, जिस प्रकार यदि कोई कहे कि मैंने अमुक वस्तु का त्याग किया है। संसार में सब कुछ त्यक्त ही हैं, कोई ऐसी, वस्तु नहीं है जो त्यागने योग्य हो । स्वभाव से तो सभी कुछ तुमसे व्यक्त ही है ।

ग्रहण क्या करोगे ?

संसार में ग्रहण करने योग्य कुछ भी नहीं है, क्या ग्रहण करोगे ? यह जो कुछ देख रहे हो, सब मदारी के रुपये के समान मिथ्या है, इसमें कोई तथ्य नहीं है । ग्रहण करने योग्य तो वह वस्तु हो सकती है जो सुखास्पद हो या शान्ति -प्रद हो। संसार की सभी वस्तुइँ क्षणभंगुर हैं, वियोगान्त हैं । इनके संयोग में जितना सुख नहीं मिलता उतना इनके वियोग में दुःख होता है और इनका संयोग भी परिणाम में दुःखद ही होता है । इसलिए कोई भी वस्तु यहाँ की संग्रहणीय नहीं है, संसार में तो कुछ भी ग्रहण करने योग्य नहीं है ।

तत्व दृष्टि से देखो तो भी 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' की भावना से देखो। यह संसार सब ब्रह्म ही है, यहाँ स्वरूप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं । तो फिर जब सब कुछ अपना स्वरूप ही है, अपने से भिन्न कुछ दूसरी वस्तु ही नहीं है, तो ग्रहण किसका करोगे ? इस प्रकार भी संसार में ग्रहण करने योग्य कुछ नहीं है । अतः किसी भी दृष्टि से संसार में ग्रहण करने योग्य कुछ है ही नहीं ।

इसीलिए कहा जाता है कि यहाँ न कुछ ग्रहण करने की भावना बनाओ और न कुछ त्यागने की ही इच्छा करो । त्याग ग्रहण से सर्वंथा अलग रहो । जब न कुछ त्यागने की इच्छा करोगे और न कुछ ग्रहण करने की इच्छा तो वासना रहित होकर अपने स्वरूप में स्थिति हो जाओगे । इसीलिए विचार करते हुए यह बात अपने मन में दृढ़ कर लो कि यहाँ न कुछ त्यागने योग्य है और न कुछ ग्रहण करने योग्य । ऐसा विचार पुष्ट करके अपने स्वरूपानन्द में निमग्न रहो यही मनुष्य जन्म की सार्थकता है ।

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिक ब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
https://www.instagram.com/shrivaidikbrahmanah
*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - १००*

_अविवेक से मनुष्य बहुत कष्ट उठाते हैं_

सर्वदानन्दमय सर्वशक्तिमान् भगवान् सर्वान्तर्यामी हैं । सबके हृदय में अभेद रूप से स्थित हैं; फिर भी लोग दुःखी और अशान्त देखे जाते हैं। संसार का सारा दुःख और सारी अशान्ति अविवेक के ही कारण है। सुख शान्ति के भण्डार- स्वरूप भगवान् का तो अन्दर ही निवास है, परन्तु अविवेक के कारण सुख शान्ति की प्राप्ति के लिए लोग बाहर भटक रहे हैं । भौतिक सामग्री संचय में सुख-बुद्धि हो गई है, यही सारे दुःखों और कष्टों का कारण है ।

औरों को क्या कहा जाय, द्रोपदी तक को भ्रम हो गया था । जब दुःशासन ने उठकर द्रोपदी की साड़ी खींचना प्रारम्भ किया तो एक बार द्रोपदी ने एक से एक महाबलशाली अपने पाँचो पतियों की ओर देखा, पितामह भीष्म की ओर भी देखा । जब सब असहाय से बैठे रह गये, तब द्रोपदी को पता चला कि आपत्ति-काल में कोई भी सहायक नहीं होता। बड़ी से बड़ी भौतिक सामग्री समय आने पर सब बेकार सिद्ध हो जाती है और हितैषी सब मुँह फेर लेते हैं। यह सोचकर निस्सहाय अवस्था में उसने भगवान् कृष्ण का स्मरण किया- उन्हें पुकारा – “हे नाथ ! द्वारिका वासिन् !”

अब यहीं विचार का विषय है। यदि द्रोपदी को विवेक होता तो वह भगवान् को द्वारिका वासिन् कह कर न पुकारती । भगवान् तो अनिष अन्तर्यामी अन्तर्वासिन् हैं। भगवान् को अपने निकट अपने में न देखकर द्रोपदी ने उन्हें द्वारिका से बुलाया, यही अविवेक है। सर्वशक्तिमान् भगवान् को सदा सर्वदा सर्वव्यापक न मानना ही सबसे बड़ा अविवेक है। इसी के कारण लोग अनन्त दुःख भोगते हुए भी भगवान् की कृपा प्राप्त नहीं कर पाते ।

जब द्रोपदी का चीर बढ़ने लगा तो द्रोपदी समझ गई कि भगवान् आ गये। तब उसने कहा - "भगवन ! आपको आने में कुछ विलम्ब हुआ ।" भगवान् ने कहा – “द्रोपदी ! मैं तो तेरे पास ही था, तूने मुझे द्वारका से बुलाया ( द्वारका वासिन् कह कर ) तो मुझे वहाँ जाकर फिर आना पड़ा, इसी में विलम्ब हुआ।"

स्पष्ट ही है कि भगवान सर्वत्र विराजमान हैं और भक्त पर सब प्रकार का अनुग्रह करने को तैयार हैं । "जो मुझे जैसा भजता है, उसे मैं वैसा हो मानता हूँ," यह भगवान् की प्रतिज्ञा है :
"ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तां स्तथैव भजाम्हम्।" -गीता

इसलिए भगवान् को सर्वत्र विराजमान मानते उनकी उपासना करके एक बार उनकी कृपा के पात्र बन जाओ, तो फिर सदा के लिए दुःख और अशान्ति से छुटकारा मिल जाएगा।

*उपदेश १०१*
_स्वार्थ प्रबल है_

संसार इतना स्वार्थी है कि मनुष्य का चमड़ा यदि किसी काम में आता होता तो चमड़ी खिचवाकर चिता पर भेजता । इसमें लेश मात्र भी सन्देह नहीं है। जब तक लोगों का स्वार्थ सिद्ध होता है तभी तक सब मान-सम्मान और अनुराग दिखाते हैं। भगवान् आदि शंकराचार्य ने ठीक कहा है :-

यावत् वित्तोपार्जन सक्त:,तावन्निज परिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जर देहे,वार्ता कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥

अर्थात्, जब तक धन कमाने की सामर्थ्य है, तब तक अपने स्वजन कुटुम्बी लोग भी अनुराग करते हैं। फिर जब वृद्धावस्था आती है और शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, तब घर में उससे कोई बात भी नहीं पूछता। इसलिए 'भज गोविन्दं' 'भज गोविन्द' । 'भज गोविन्दं' मूढ़ मते ॥
हे अज्ञानी ! मतिमन्द जीव ! भगवान का भजन कर।



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*उपदेश - १०२*

_भौतिकवाद सुख-शान्ति देने में समर्थ नहीं_

भौतिक उन्नति माया के प्रसार की ही उन्नति है। माया के सहारे सुख शान्ति की इच्छा करना अन्धकार को अन्धकार से ढूढ़ने का प्रयत्न करना है। जिस प्रकार बिल के ऊपर लाठी पीटने से अन्दर का सर्प नहीं मारा जा सकता, उसी प्रकार शारीरिक भोग-विलास की सामग्री के बाहुल्य से सूक्ष्म शरीर (मन) में होने वाली अशान्ति को भी नहीं मिटाया जा सकता । सुख-दुःख मन में होता है। सोये हुए को गाली दो, तो उसे दुःख नहीं होगा; क्योंकि उसका मन उस समय अपने ? कारण अविद्या में लीन रहता है । तात्पर्य यह है कि मन ही सुखी - दुःखी होता है । इसलिये मन जब तक तृप्त नहीं होगा, तब तक अशान्ति जा नहीं सकती। मन तब तक भटकता रहेगा, जब तक वह पूर्णानन्दमय भगवान् न प्राप्त न कर सकेगा । जैसे छोटे-छोटे बच्चों को खिलौना देकर बहलाते हो, वैसे ही आप लोग धन, स्त्री, पुत्र, मान प्रतिष्ठा आदि से मन को बहला सकते हो । पर ये वस्तुयें मन को सन्तुष्ट नहीं कर सकतीं । ये मन उसी को पाकर सन्तोष मानता है जो सब से बड़ी वस्तु है । संसार में परमात्मा ही ऐसी बड़ी वस्तु है जिसके जान लेने के बाद और कोई वस्तु जानने योग्य नहीं रह जाती ।

*उपदेश १०३*

_उदर-पोषण के लिये_
_अपने भाग्य पर विश्वास रखो_
_किसी के दबाव में आकर अनुचित कार्य करके_
_पाप का संग्रह मत करो_

"यदस्मदीयं न हि तत्परेशाम्" जो हमारे भाग्य में है वह अवश्य ही हमें मिलेगा, उसे कोई दूसरा नहीं पा सकता यह कर्म-मीमांसा शास्त्र का अकाट्य सिद्धान्त है । हमारा तो यह कई बार का सिद्ध अनुभूत प्रयोग भी है। ऐसे घनघोर वनों में जहाँ कोई मनुष्य की कल्पना भी नहीं कर सकता है। वहाँ अपना भाग्य अपने साथ रहता है ! प्रारब्ध का भोग्य वहाँ भी प्राप्त होता है । जिस समय प्रारब्ध समाप्त हो जायगा, उसी समय शरीर छूट जायगा । यह निश्चय है-- जब तक शरीर है, तब तक प्रारब्ध का भोग अवश्य है, इसमें सन्देह की बात नहीं । इसलिये अपने योगक्षेम के लिये चिन्तित होना, अपने पूर्व संचित कोष की विस्मृति का परिचायक है ।

जो पहले की कमाई है वह तो मिलेगी ही, इसमें सन्देह नहीं। बैंक में जमा किया हुआ रुपया अपने को ही मिलेगा, इसमें सन्देह ही क्या ? संसारी बैंक का रुपया तो कभी बैंक के फेल होने पर डूब भी जा सकता है; परन्तु अपने कर्मों के फल जिस बैंक में जाकर जमा होते हैं, वह बैंक कभी फेल होने वाला नहीं है । वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् का अक्षय कोष है, जिसमें कभी हिसाब में भी भूल नहीं हो सकती । अतः जिसने जो जैसा किया है, वह उसे रत्ती रत्ती भोगना पड़ेगा । अपने समीप जो आता है वह अपना ही प्रारब्ध-भोग है । पर जो सामने आये उसे विचार पूर्वक ही भोगना चाहिये । मनुष्य और पशु में केवल यही अंतर है कि पशु उचितानुचित का विचार नहीं कर सकता कि क्या उचित है और क्या अनुचित आप मनुष्य हैं, इसलिये उचितानुचित का विचार करते हुए ही व्यवहार चलाओ । कभी भी किसी के दबाव या संकोच में आकर कोई ऐसा कार्य मत कर बैठो जिसमें पाप का संग्रह हो । पाप से आगे का मार्ग बिगड़ता है। जैसा पहले कर आये हो उसका फल इस समय भोग रहे हो - इसी से शिक्षा लेकर ऐसे उत्तम कार्य करो जिससे आगे तरक्की में जाओ। कहीं ऐसा न हो कि जिसने भोजन वस्त्र का प्रबन्ध कर दिया, उसके अच्छे-बुरे सभी कार्यों का समर्थन करने लगे। “जाकर खाई ताकर दुहाई "II तो कुत्तों का काम है; मनुष्य को तो विचारपूर्वक कार्य करना चाहिये । उचित का ही समर्थन करो और अनुचित का यदि खंडन नहीं कर सकते तो कम से कम उससे तटस्थ तो रहो ।

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*उपदेश - १०४*

_जितना हो सके शुभ कार्यों का सम्पादन करो_
_आत्म-सुख की प्राप्ति इन्द्रिय संयम से होगी,विषयोपभोग से नहीं_

इन्द्रियों के द्वारा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का हो अनुभव होता है। क्योंकि इन्द्रियाँ वहिर्मुखी होने के कारण केवल बाहर के ही विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं, अन्दर का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं हो सकता। आत्मा अपने निकट से निकट है, नित्य प्राप्य है, कभी भी उसका अभाव नहीं होता फिर भी हम उसे देख नहीं पाते, जान नहीं पाते। जो सब को देखने वाला है उसको किससे देखा जाय ? आँखें सब को देखती हैं; परन्तु स्वयं अपने को नहीं देख पातीं, उन्हें देखने के लिये दर्पण चाहिये । आत्मा को देखने का दर्पण अन्तःकरे है — अतः माने 'भीतरी' कारण माने 'ज्ञान' का साधन । आन्तरिक ज्ञान का साधन होने के कारण इसे अन्तकरण कहते हैं ।दर्पण यदि स्वच्छ होता है, तभी उसमें प्रतिबिम्ब पड़ता है।मलिन दर्पण में कभी भी प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता । इसी प्रकार निर्मल अन्तःकरण में ही आत्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है; मलिन अन्तःकरण वाले उसे नहीं देख सकते । इसलिये अन्तःकरण को स्वच्छ बनाने की आवश्यकता है।

जाति, कुल, रूप, यौवन, धन, मान इत्यादि का अभिमान करना अज्ञान है । जब तक इनके अभिमान का त्याग नहीं किया जाता, तब तक आत्मा का ज्ञान कैसे हो सकता है । अज्ञान के नाश होने पर ही आत्मा का ज्ञान होता है । अज्ञानी अपने को परमात्मा से अलग मानता है और स्थूल शरीर को ही वह अपना स्वरूप समझता है । नाश होने वाले जगत् के पदार्थों में उसकी विशेष आसक्ति रहती है। इसी लिए किसी न किसी निमित्त को लेकर वह दुःखी होता रहता है ।

शास्त्र और गुरु लोग जगत् को मिथ्या बताते हैं । मिथ्या वह है जो दिखे तो, परन्तु जिसकी सत्ता स्थिर न हो — जैसे मन्दान्धकार में पड़ी हुई रज्जु को देखकर किसी को उसमें सर्प का भ्रम हो जाय, पर वास्तविक सत्ता सर्प की नहीं है; परन्तु भ्रमकाल में तो उसकी प्रतीति सत्य ही है। जब तक ठीक-ठीक रज्जु का ज्ञान नहीं होता, तब तक सर्प भ्रम की निवृत्ति नहीं हो सकती। अब इस भ्रम को दूर करने के लिए कोई लाखों रुपये व्यय करके अश्वमेध यज्ञ आदिनकरे तो इससे भी वह भ्रम दूर नहीं होगा । भ्रम मिटाने का उपाय यह है कि दीपक लेकर उसके प्रकाश में रज्जु कों ठीक- ठीक देख लिया जाय । रज्जु का निश्चय बोध हो जाने पर ही वह व्यक्ति किसी के प्रयत्न करने पर भी रज्जु को सर्प नहीं, मान सकता । इसी प्रकार जिसे जगत् के अधिष्ठान रूप पर आत्मा का बोध हो चुका हैं, वह कभी भी जगत् को सत्य नहीं मान सकता । अज्ञानी ही उसे सत्य मानते है । जगत् के मिथ्यात्व का बोध हो अज्ञान-निद्रा से जागने पर होता है । जागृत अवस्था लाने के लिए बन में जाने की आवश्यकता नहीं है। बन में रहने मात्र से किसी को ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। न जाने कितने कोल -भिल्ल बनेचर वहां रहते हैं, पर महामूर्ख हैं । एकान्तवास तब लाभदायक हो सकता है। जब अज्ञान को मिटाने के साधन प्राप्त हों । अज्ञान को दूर करने के साधन सद्गुरु और शास्त्रों से प्राप्त होते हैं । परन्तु जो शास्त्रों पर ही श्रद्धा नहीं करता, महात्माओं के बचनों का विश्वास नहीं करता, उसके अज्ञान की निवृत्ति कैसे हो सकती है ? इसीलिए लिए विश्वास सम्पादन करने की आवश्यकता है।
“असंशयवतां मुक्तिः संशयाविष्ट चेतसाम् ।
न मुक्तिर्जन्म जन्मान्ते तस्माद् विश्वासमाप्नुयात ।"

सारांश में, मुक्ति का अर्थ है – संसार में लौट कर न आना । दूसरा अर्थ यह है कि दुखों का स्पर्श न हो । जिसे स्त्री, पुत्र, धन, मान, प्रतिष्ठा आदि की वासना नहीं है, उसे अवश्य आत्मा का अनुभव हो सकता है। आत्मा को तत्वतः जानने वाला ही शोक-सागर से पार होता है ।

अन्तःकरण वासनाओं से मलिन रहता है; इसलिए वासनाओं को नष्ट करने की आवश्यकता है। भोग के द्वारा कोई वासनाओं को तृप्त नहीं करना चाहे तो यह 'न भूतो न भविष्यति' – न हुआ है न और न हो सकता है। तृप्ति विचार से होती है, चाहे आज करो, चाहे दस वर्ष बाद । इन्द्रियाँ जब शान्त होंगी तब विचार के द्वारा हों। भोग से भोग की वासना और दृढ़ होती है। कहीं खुजलाने से आज तक किसी की खुजली अच्छी हुई हो तो हम यह भी आशा करें कि विषयभोग से इन्द्रियाँ शान्त होंगी।
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सब जानते हैं कि साथ में कुछ नहीं जाता, अपना शरीर भी चिता तक ही जाता है। पर वेद-शास्त्रों पर विश्वास करो तो साथ जाने वाली भी एक वस्तु है । परलोक-मार्ग में जीव के साथ उसके किये हुए शुभाऽशुभ कर्म जाते हैं। शुभ कर्म करने वाला उत्तम लोकों को प्राप्त होता है और अशुभ कर्म करने वाला नरक को। इसलिये जितना हो सके, शुभ कर्मों का सम्पादन करो ।
*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - १०५*

_सतर्क रह कर जीवन का सदुपयोग करो_

संसार में तीन चीजें हैं – तन, मन और धन । यही संसार कहा जाता है। तन-मन-धन का उपयोग बन जाय तो कभी अशांति न आवे । इनका उपयोग नहीं बनता, इसी से अशान्ति भोगवी पड़ती है। इसका उपयोग सिखाने के लिये कोई स्कूल कालेज नहीं है। धन की तीन प्रकार की गति- होती है — जो न दान देते हैं और न उसका अपने लिये हो उपयोग करते हैं, उनका धन तृतीय गति को अर्थात् नाश को प्राप्त होता है। तुलसीदास ने भी लिखा है

“सो धन धन्य, प्रथम गति जाकी ।”

अर्थात्, वह धन धन्य है, सार्थक है, जिसकी प्रथम गति हो, जो दान में व्यय किया जाय । तुलसीदास ने तो केवल धन के ही लिये कहा है, पर हम कहते हैं कि-
“सो तन धन्य प्रथम गति जाकी ।"
“सो मन वन्य प्रथम गति जाकी ।"

अर्थात्, वह तन और मन भी धन्य है, जिसकी प्रथम
गति हो ।

तन की प्रथम गति है कि शरीर भगवान् की अर्चना पूजा में लगा रहे — आंख भगवान् के रूप को देखे; कान का यश सुने, वाणी भगवान का यश गान करे । अर्थात्, प्रत्येक इन्द्रिय भगवत्संबंध को अपना विषय बना कर भगवान् रस पान करती रहे । प्राण भगवान् की आराधना में लगा रहे—यही तन को प्रथम गति है। मन की प्रथम गति है-- भगवान् में ही मन लगा रहे । धन की प्रथम गति कही गई है — सत्पात में दान, परन्तु दान के पहले उचितानुचित विचार पूर्वक ही उसका अर्जन होना चाहिये। ऐसा नहीं होना चाहिए कि जैसा मिला, वैसा ही अर्जन कर लिया। अनर्थ और पाप के द्वारा जो धन कमाया जायगा वह धन तो यहीं पड़ा रह जायगा, परन्तु पाप का फल अपने साथ जायगा, पाप पोछा नहीं छोड़ेगा। इसलिये धन-संग्रह में पाप न होने दो। पाप धन के साथ यहीं छूट जाय, ऐसा नहीं होगा। इससे धन-संग्रह में बहुत विचार करना चाहिये ।

एक महात्मा ने ऐसी सिद्धि प्राप्त कर ली थी कि जो कोई उनके पास आता था, उसके अच्छे-बुरे कर्मों को वह कह देते थे । एक समय हमारा उनका समागम हो गया। कहीं से घूमते हुये हम उसी तरफ से निकल पड़े । हमने उनसे कहा कि जगत् पाप करता है और उसका चिंतन आप करते हो, यह तो बड़ा घाटा है । जिस मन को परमात्मा में लगा रहना है, वह मन जगत के किये हुये अनाचार-पापाचार का चिन्तन करे – यही मन का दुरुपयोग है। साधु होकर फिर मन का इतना दुरुपयोग !!

तन-मन का और भी एक प्रकार से दुरुपयोग किया जाता है कि लोग जाति-पांति के समर्थन में ही लगे रहते हैं। मनुष्य का शरीर मिला है; किसी जाति में उत्पन्न हो गये – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र – किसी भी वर्ण में जन्म हो गया तो भगवान् के स्मरण का सब को अधिकार है और भगवान् के निकट पहुँचने का भी सब को अधिकार है । बीच में, क्लास में अन्तर रहे, यह अन्तर कोई ऐसा विषय नहीं है जो बहुत अधिक विचार की चीज हो। जहां जन्म हो गया, तो हो गया । अब तो ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि फिर जन्म न हो; ऐसा नहीं कि जहाँ जिस जाति में जन्म हो, उसी के समर्थन में अपना जीवन का समय खो दिया। यह तो धर्मशाला है । यहां आकर अपना मुख्य काम बनाना चाहिये, न कि धर्मशाले का ही समर्थन करते रहो । मनुष्य जीवन में जो मन भगवान में लगाने की चीज है, उससे अनाचार-पापाचार करना उचित नहीं।

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*उपदेश - १०६*
_विचार पूर्वक प्रवृत्ति बनाने से ही_
_मन सुमार्ग की ओर जाता है_

अखंड ब्रह्मांड नायक आनन्द कंद सच्चिदानन्द भगवान् - वेद वेद्य हैं । वेद-मार्ग द्वारा ही उनको जाना जा सकता है। वेद अपौरुषेय है, दिव्य दृष्टि के दाता हैं। भगवान् के दिव्य स्वरूप को देखने के लिये दिव्य दृष्टि ही अपेक्षित है। चर्मचक्षुओं से भगवान के उस स्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते हैं। भगवान ने गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुये कहा है:-

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेने व स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥

वह दिव्य दृष्टि प्राप्त करने की चेष्टा करना ही पुरुषार्थ में मनुष्य जन्म की सफलता है ।

भौतिक पदार्थ ही चर्मचक्षुओं से देखे जा सकते हैं । फिर भी भिन्न-भिन्न पदार्थों के लिये भी भिन्न-भिन्न दृष्टि होती है। सभी भौतिक पदार्थ एक दृष्टि से नहीं देखे जा सकते । उदाहरण के लिये सोचि - माता-पिता, भाई-बहिन, स्त्री इत्यादि सभी भौतिक शरीरधारी हैं। क्या इन सब को एक दृष्टि से देखा जाता है ? माता को और दृष्टि से देखते हैं, बहिन को और तथा स्त्री को और ही दृष्टि से देखा जाता है । पुनः भिन्न-भिन्न दर्शक के अधिकारानुसार एक ही वस्तु भिन्न दृष्टि से देखी जाती है ।

इसी भांति उपासना भी अधिकार-भेद से पृथक-पृथक है, वेद का मूल प्रणव है । परन्तु सब को प्रणव के उच्चारण का अधिकार नहीं है। प्रणव तो शुद्ध ब्रह्म है। केवल एक सन्यासी जो सभी भौतिक पदार्थों के रागों को त्यागकर ही सम्यकन्यासी होता है, उसके साथ कोई राग-द्वेष सांसारिक बंधन नहीं रह जाता । वह तो केवल नितांत एक ही रह जाता है । अतः उसे ही शुद्ध प्रणव के उच्चारण का अधिकार है। गृहस्थ जिसका राग घर-गृहस्थो, स्त्री-पुतादि में बना हुआ है, उसे प्रणव के जपने का अधिकार नहीं। क्योंकि प्रणव के जपने का फल भी तो वही होना चाहिये जो वह है यानी माया रहित विशुद्ध ब्रह्म केवल एक सच्चिदानन्द स्वरूप | गृहस्थ के लिये प्रणव का जप सुफलप्रद नहीं होता, नाश अमंगल-कारक होता है ।

अतः गृहस्थों के लिये यही विधान है कि वे केवल प्रा॒णव का उच्चारण (जप) न करके किसी न किसी मंत्र के साथ जोड़कर उच्चारण करें। प्रणव को मंत्र के आदि में जोड़ कर मंत्र का जप करें – ऐसा न करना अनधिकार चेष्टा है। अनधिकार चेष्टा का प्रभाव हृदय पर भी नहीं पड़ता, सब परिश्रम विफल हो जाता है । प्रायः लोग यही कहते हैं कि मन की चंचलता नहीं मिटती, मन स्थिर नहीं होता। पर मन की चंचलता तो विधिविधान द्वारा नित्य नैमित्तिक कर्मों द्वारा ही दूर हो सकती है । उसे तो करते नहीं, एकदम ध्यानस्थ हो जाने की कल्पना करते हैं, सो कैसे सफल हो ।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध में ही तो मन जाता है। मन तो इनके पीछे दौड़ते-दौड़ते मलिन हो रहा है, शुद्धता की ओर जा कैसे सकता है। मन को वृत्ति तो श्वान-वृत्ति बन रही है । सुख की चाह में इधर-उधर भटकता हुआ कभी रूप के पीछे, कभी गंध के पीछे, कभी स्पर्श के पीछे, कभी शब्द के पीछे, श्वानवत् मन दौड़ा करता है, परन्तु स्थिर नहीं हो पाता। वह तो निरंतर विषयाराम बना हुआ है, आत्माराम कैसे बने । विषयों से हट कर यदि आत्मा की ओर झुकाव हो जावे तो आत्माराम बने, विषयाराम न बने। जिसका मन भगवत् दर्शन की ओर लग गया है, वह सिनेमा देखने नहीं दौड़ेगा। जो भगवान के रूप का प्रेमी बन गया है, वह किसी सांसारिक रूप की ओर आँख नहीं उठायेगा । जो भगवत्- चरण के स्पर्श का अक्षय सुख अनुभव करने लगता है, वह भौतिक स्पर्श की इच्छा नहीं करता ।

इसी प्रकार रूप-रस-गंध-स्पर्श शब्द के पीछे श्वानवत दौड़ने वाले मंन को भगवान् के किसी विग्रह के रूप की ओर लगाओ । उनकी सेवा से स्पर्श-सुख अनुभव करने का स्वभाव डालो । भगवान् के प्रति सुगंधित द्रव्य अर्पण कर प्रसाद रूप से उन्हें ग्रहण करना सीखो।

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*उपदेश - १०७*
_जो अपना लक्ष्य भूल गया_
_वह पथ भ्रष्ट हो ही जायगा_

अनन्तान्दमय, सर्वशक्तिमान, ज्ञानस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है। अपने इस उत्तमोत्तम लक्ष्य का जिसे सदा स्मरण रहता है और जो इस लक्ष्य की प्राप्ति करने के लिये वेद-शास्त्र के बताये हुए मार्ग का अनुसरण करता है अर्थात् जो अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि की हलचल शास्त्रानुसार रखते हुये अपना जीवन धर्मानुकूल व्यतीत करता है, वही वास्तव में पुरुषार्थ-शील एवं भाग्यशाली है। ऐसे सत्पुरुषार्थवान् पुरुष की सत्र मनोकामनायें पूरी होते हुये उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है, इसमें सन्देह नहीं ।

जो अपने जीवन का चरम लक्ष्य बनाया जाय उसके लिये उसी विषय के किसी अच्छे विशेषज्ञ को श्रद्धापूर्वक अपना मार्ग प्रदर्शक बनाना चाहिये, जिससे कि उस विषय में उसके अनुभवों का तुम्हें लाभ हो सके। दूसरी बात यह है कि तुम्हारे जीवन की प्रवृत्ति ऐसी रहनी चाहिये कि जो तुम्हारे लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में बाधक न होकर साधक हो ।

हर समय सतर्क रहो कि कहीं ऐसा न हो कि अपने लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग से इधर-उधर भटक जाओ। मत भूलो कि व्यवहार ही परमार्थ का मार्ग है। व्यवहार यदि अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त है, तो वहो तुम्हें लक्ष्य प्राप्ति में आगे बढ़ायेगा । यदि मन विषयों के वशीभूत होकर व्यवहार में यथेच्छा-चरण में आया और शास्त्र-मर्यादाओं का उल्लंघन हुआ, तो व्यवहार ही लक्ष्य पथ से तुम्हें हटाकर पारमार्थिक लक्ष्य के विपरीत अनर्थ सम्पादन की ओर आगे बढ़ायेगा ।

इसलिये सदा अपने परम लक्ष्य का स्मरण करते रहकर उसकी प्राप्ति के लिये अनुभवी गुरु का पथ-प्रदर्शन और सतर्क होकर गुरुपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है।

*उपदेश १०८*

जो भगवान की और झुका
उसे किसी वस्तु की कमी नहीं

सत्संङ्ग करने से उचितानुचित, पाप-पुन्य, अधर्म और कर्तव्य का बोध होता है, विवेक उत्पन्न होता है । इसलिये सत्संग करने वाला अधर्मं से बचता है और धर्म में प्रवृत्त होता है। पाप से बचकर वह पुन्य कर्म करता है । सिद्धांत कि 'धर्मेण पापमपनुदति' धर्म करने से पाप नष्ट होता है। इस प्रकार सत्संग से पाप का नाश होता है ।

सत्संग में बैठने से, भगवत्सम्बन्धी वार्ता श्रवण करने से, स्वाभाविक ही आन्तरिक दुख-उद्योग आदि मनुष्य के हृदय को दहने वाला ताप शान्त होता है। सत्संग करने वाले के अन्तकरण में स्वाभाविक ही शान्ति रहती है ।

सत्संग के द्वारा मनुष्य सर्वशक्तिमान सर्व समर्थ भगवान् की ओर झुकता है । जो भगवान् की ओर झुका है उसके लिये कभी भी किसी वस्तु की कमी नहीं रह जाती, उसकी सारी दीनता - दरिद्रता नष्ट हो जाती है। इस प्रकार सन्त-समागम से पाप, ताप और दैन्य सभी का निवारण होता है ।

_शुभमस्तु नित्यम्_

इति श्रीमद्ब्रह्मानंद सरस्वती महाभागस्य १०८ उपदेशः।
जयश्रीहरि💐

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिक ब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
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*अनंतश्रीविभूषित ब्रह्मलीन द्विपीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामिश्री स्वरुपानंद सरस्वती जी महास्वामीजी का दीपावली पर्व पर दिव्य संदेश।*

"दीपज्योतिः परंब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते॥"

दीपक की रोशनी संसार के तम को दूर करे और आपके जीवन मे प्रकाश लाए। आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। माता लक्ष्मी आपकी सभी मनोकामना पूर्ण करें।

श्रीवैदिक ब्राह्मणः 🚩 परिवार की और से तमाम सनातन धर्मावलंबियों को दिवाली पर्व और नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं💐

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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग १*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

*सभी सनातन धर्मावलंबियों को श्रीरामनवमी की हार्दिक बधाइयां।*💐

शंकाकुठारायितवीक्षणाभ्यां शंकारकत्व प्रदपूजनाभ्याम्।
लंकाविपारा तिरतिप्रदाभ्यां नमोनमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥
पवनजर विसुत पद्मप्र भवज मुखविनुतांघ्रिम्।
त्रिभुवनजनत ति पालं दिन मणिकुलमणिमीडे॥

आखिल संसारके केवल समस्त मनुष्योंके ही नहीं, सभी जीवोंके मनमें स्वाभाविक यही एक इच्छा सवंदा हुआ करती है कि हमें किसी भी समय, किसी भी स्थान में, किसी भी अवस्था में किसी भी कारण से, किसी प्रकारका भी तनिक-सा भी दुःख न हो। सब समय, सभी स्थानोंमें और सभी अवस्थाओं में केवल सब प्रकारसे सुख ही हो। इसी स्वाभाविक इच्छासे प्रेरित होकर समस्त जीव अपनी-अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, दैशिक, सामयिक आदि योग्यता तथा अनुकूलता के अनुसार अनेक प्रकार के प्रयत्नों में प्रवृत्त रहते हैं।

सुखकी इच्छा के साथ ही दुःख दूर करने की इच्छा अर्थात् केवल शुद्ध सुखकी चाह होना स्वाभाविक ही है। कारण,मनुष्यादि सभी जीवोंके मतका तो यही स्वभाव है कि थोड़ेसे भी दुःखके प्राप्त होनेपर वह अपने अनुभव में आये हुए और आते रहनेवाले अनेकानेक और बड़े-बड़े सुखोंका लेशमात्र भी अनुभव न कर, उसी एक छोटे दुःखका अनुभव करता है और दुखी होकर एकमात्र उसी दुःख निवृत्ति की चिन्ता में पड़ जाता है।

मनका यह अनुभव और वृत्ति युक्तियुक्त भी है। कारण, दुःख इतनी बुरी वस्तु है कि जैसे एक लोटेमें भरकर रक्खे हुए दूध या जलमें एक दो बूँद विष डाल देने पर वह सबका सब दूध या जल विष ही बन जाता है, उसमें बहुत से दूध या जलका जरा-सा भी प्रभाव नहीं रहता, वैसे ही अनेक तथा अनेक प्रकारके बड़े-बड़े सुखोंमें जब थोड़ा-सा भी दुःख मिल जाता है तो वे सारे सुख दुःखमय ही बन जाते हैं, फिर उन बड़े बड़े सुखोंका तनिक-सा भी प्रभाव नहीं रह जाता । इसीलिये यह अनुभवकी बात हुआ करती है कि जबतक वह दुःख दूर नहीं होता तबतक मनमें शान्ति नहीं रह सकती और भगवद्गीता में आनन्दकन्द परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के श्रीमुख से निकले हुए ‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’ इस वाक्यानुसार जहाँ अशान्ति है, वहाँ सुख कभी नहीं हो सकता।

इस विषयपर विचार करना चाहिये कि हमलोग मनुष्ययोनिमें आकर अपनी मनुष्य जातिको पशु, पक्षी आदि सबसे श्रेष्ठक्यों मानते हैं? जब सभी जीव मनुष्य, पशु, पक्षी, कृमि और कीट-समानरूपसे ही दुःख दूर करना और सुख प्राप्त करना चाहते रहते हैं, अर्थात् जब सबका ध्येय तथा लक्ष्य एक ही प्रतीत होता है, तब उन सब जातियोंकी अपेक्षा मनुष्य जाति किस अंशमें श्रेष्ठ है, जिसके आधारपर मनुष्य अपनेको सर्वश्रेष्ठ माना करता है। यह केवल अज्ञानी मनुष्योंका ही अभिमानजनित कथन नहीं है कि मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है, जगद्गुरु श्रीश्रादि शंकराचार्य भगवान्ने भी अपने विवेकचूडामणि ग्रन्थ में मङ्गल श्लोकके पश्चात् प्रथम श्लोकमें ही ‘जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं' इत्यादिसे सर्वप्रथम यही विषय बतलाया है और श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कंध में तो मनुष्ययोनिको देवयोनिकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ बतलाया गया है। पर हमलोगोंको इतनेसे ही सन्तुष्ट न होकर कि हमारी मनुष्यजाति सर्वश्रेष्ठ है, यह विचार भी करना चाहिये कि वह क्यों श्रेष्ठ है और हमें उस श्रेष्ठताको किसप्रकारसे सफल करना होगा ?

इस विचारमें उतरनेपर यह तो स्पष्ट है कि शारीरिक बल आदि बाह्य अंशोंमें मनुष्य अपनी श्रेष्ठताका दावा नहीं कर सकता, क्योंकि इन अंशों में तो उससे श्रेष्ठ बहुत-सी योनियाँ पशु पक्षी आदि में भी पायी जाती हैं। कदाचित् मनुष्य यह समझें कि हम सुख दुःखके सम्बन्धर्मे, अन्य जीवोंके सदृश विचार करते हुए भी बन्धनकी निवृत्ति या मोक्ष चाहने में विशेषता रखते हैं ( जैसे आजकल बहुतसे लोग यह दावा करते हैं कि परराज्यकी निवृत्ति या स्वराज्यका खयाल करना पाश्चात्योंकी विशेषता है इत्यादि ) तो यह भी बड़ी भूल ही है, क्योंकि मुमुक्षा तो जन्तुमात्रकी स्वाभाविक इच्छा है। मनुष्य जब एक छोटेसे चूहेको पकड़ना चाहता है तब वह भी उसके हाथसे बचकर भागने लगता है, यह मुमुक्षाका ही तो उदाहरण है जो केवल पाश्चात्योंका नहीं, केवल मनुष्योंका भी नहीं, प्रत्युत जीवमात्रका स्वाभाविक जन्मसिद्ध लक्षण है।

-
क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग २*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

अतः इस विषयपर गहरा विचार करनेपर यही निष्कर्ष निकलेगा कि मनुष्य में दो बातें विशेष हैं। जिनमें एक है उसकी सुख-दुःख सम्बन्धी दृष्टि, जिससे वह पशु-पक्षी श्रादिकी अपेक्षा अधिकतर दूरदृष्टि से सब विचार करता है, केवल तात्कालिक दृष्टिसे ही नहीं ! कठोपनिषद् में भगवती श्रुतिने जो 'श्रेय-प्रेय' का विभाग किया है और गीता में भगवान् श्रीकृष्णने –
'यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्'
'यत्तदग्रेऽमृतोपमम्' 'परिणामे विषमिव'

-सुखका विभाग किया है, इसीसे मनुष्यजाति श्रेष्ठ है। अतएव यह भी कहना होगा कि जो मनुष्य जितने अंशमें दूरदृष्टि से विचार करनेवाला है, उतने ही अंशमें उसका मनुष्यत्व सफल हो रहा है और जो मनुष्य जितने अंश में दूरदृष्टिको छोड़कर तात्कालिक दृष्टिमें फँसकर काम करता है, वह उतने ही अंश में अपने मनुष्यत्वको व्यर्थ कर, इस समय पशुकी श्रेणी में योग्यतासे प्रविष्ट होकर, अगले जन्ममें शरीरसे भी प्रविष्ट होनेकी तैयारी कर रहा है। कारण, कर्मका यही नियम है कि मनुष्य इस जन्ममें अपनी चित्तवृत्ति, गुण, कर्म आदिसे जिस योनि के लक्षणों में प्रविष्ट होता है, उसका अगला जन्म अवश्य उसी योनिमें होता है।एतएव सुख-दुःखका निश्चय दूरदृष्टि से हो, केवल तात्कालिक दृष्टिसे नहीं। यह मनुष्य योनिमें विशेषताका पहला अंश है।
मनुष्य योनिमें दूसरा विशेषताका अंश यह है कि उसको एक ऐसा अपूर्व साधन प्राप्त है जो अन्य किसी भी योनिमें नहीं मिलता। और सब योनियों में (जिनमें देव-योनियोंकी भी गणना है) जो शरीररूप साधन मिलता है, वह-

शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते'

-इन भगवद्-वचनोंके अनुसार क्षेत्र तो अवश्य है, परन्तु है केवल भोगक्षेत्र, जिसमें पिछले जन्मोंमें किये हुए पुण्य-पापके फलरूपी सुख-दुःख भोगे जा सकते हैं। इसके सिवा अन्य कोई काम न तो होता है और न हो ही सकता है। परन्तु मनुष्योंके शरीर भोगक्षेत्र होनेके साथ ही कर्मक्षेत्र भी हैं, जिनसे मनुष्य अपने भावी कल्याण के लिये आवश्यक कर्म, भक्ति और ज्ञानमार्गोंके द्वारा लाभ उठाकर स्वयं ही अपने भविष्यके विधाता बन सकते हैं।इसीलिये श्रीमद्भागवतके पञ्चम स्कन्ध में मनुष्य जातिको देवयोनिसे भी बढ़कर श्रेष्ठ तथा धन्य बतलाया है। इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो गया कि मनुष्य शरीर कर्मक्षेत्र भी है।

यह तो सबपर विदित ही है कि मृत्यु कब आनेवाली है इस बातका कोई निश्चय नहीं, क्योंकि वह Notice ( पूर्वसूचना ) देनेके लिये किसी नियमसे आबद्ध नहीं है।फिर यह भी पता नहीं चलता कि हमें अगले जन्म में कर्मक्षेत्ररूपी मनुष्य शरीर मिलनेवाला है या केवल भोगक्षेत्ररूपी पशु शरीर साथ ही यह भी अविदित है कि पशु-शरीरके बाद फिर कर्मक्षेत्ररूपी मनुष्य शरीर कब मिलेगा। इस दशामें यह स्वयमेव ही स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य योनिमें आये हुए हमलोगोंको अपना मनुष्य जन्म सफल करते हुए अपने परम लक्ष्य में पहुँचने के लिये, अभीसे एकाग्रता के साथ लक्ष्य की ओर अनन्य भावसे दृष्टि लगाकर, साधनों में संलग्न हो, जहाँतक हो सके, इसी जन्ममें अपने यथार्थ उद्देश्यको पूरा कर लेना चाहिये, नहीं तो कोई नहीं कह सकता कि इस कामके लिये हमें फिर कब अवसर मिलेगा। अतएव हम लोगोंको अत्यन्त जागरुकता तथा अप्रमत्तता के साथ विचारपूर्वक, यह पता लगाकर कि 'हमारा लक्ष्य क्या है और उसकी प्राप्ति के लिये कौन-कौन से साधन हैं, उन साधनोंमें प्रवृत्त हो, अपने लक्ष्य तक पहुँच जाना चाहिये ।

लक्ष्य और साधन, ये दोनों ही भगवती उपनिषद् रुपिणी श्रुतिके इस मन्त्र से स्पष्ट हैं-

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥

अर्थात्, आत्म (जीवात्म) रूपी वाणको प्रणवरूपी धनुषपर चढ़ाकर, ब्रह्म ( परमात्म) रूपी लक्ष्य में पहुँचाना है। अप्रमत्त होकर वेधन करना चाहिये, जिससे कि जैसे वाण लक्ष्यसे तनिक भी इधर-उधर न जाकर, लक्ष्यके भीतर प्रविष्ट हो उसके साथ एक हो जाता है, वैसे ही जीवात्म रूपी वाण परमात्मरूपी लक्ष्यसे तनिक भी इधर-उधर न रहकर, उसीमें घुसकर, उसके साथ एक हो जाय।

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क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

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2024/06/29 11:10:56
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