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*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ७१*
_तुम तो सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा के अंश हो_
_अपने को भूल कर दुःख-सागर में डूब रहे हो_

एक बार विचार करके देख लो कि तुम कौन हो। संसार में जितना जो कुछ तुम अनुभव करते हो, वह सब तुम से अलग है। शरीर, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब कुछ तुम अपना मानते हो – कहते हो कि हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा प्राण । स्पष्ट है, जो कुछ अपना मानते हो उसके तुम स्वामी तो हो, पर तुम्हारा अस्तित्व उससे ऐसे भिन्न है जैसे तुम्हारा घर, तुम्हारा मंदिर है। मंदिर तुम्हारा है; पर तुम मंदिर नहीं हो। इसी प्रकार शरीर, मन, बुद्धि, प्राण आदि तुम्हारे हैं, पर तुम वह नहीं हो— तुम उससे भिन्न वस्तु हो। तुम सच्चिदानन्द परमात्मा के अंश हो, परन्तु अविवेक के कारण, अज्ञान के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आदि के साथ तुमने अपनी इतनी घनिष्टता बना ली है कि उसे ही तुम अपना स्वरूप समझने लगे हो।

हस्त पाद आदि कर्म- इन्द्रियां नष्ट हो जाँय तो भी तुम रहते हो, आँख - कान आदि ज्ञानेन्द्रियां नष्ट हो जाँय तो भी तुम बहरे अंधे होकर रहते हो तुम्हारा अस्तित्व ज्ञानेन्द्रियों के नष्ट होने से नष्ट नहीं होता। जब कभी तुम बहुत भयंकर रोग से पीड़ित होते हो तो यही कह उठते हो कि 'प्राण निकल जाता तो हम सुखी हो जाते' अर्थात् तुम समझते हो कि संसार की समस्त वेदनायें प्राण निकल जाने से समाप्त हो जायेंगी।इस प्रकार प्राण भी तुमसे भिन्न पदार्थ है, तुम प्राण भी नहीं हो। जितना जो कुछ दृश्य है और अनुभव हो सकता है, उस सबसे तुम भिन्न हो।

समझ लो, जहां तक जिन-जिन पदार्थों का तुम त्याग कर सकते हो वहां तक उन-उन पदार्थों से तुम भिन्न हो- तुम्हारा स्वरूप वही है जिसका तुम कभी भी त्याग नहीं कर सकते। सबका अनुभव करने वाले सबके साक्षी तुम शुद्ध बुद्ध मुक्त चेतन स्वरूप सच्चिदानन्द सनातन परमात्मा के अंश हो। अपने स्वरूप को समस्त जगत् और शरीर, इन्द्रियां, प्राण आदि सब से अलग अनुभव कर लो तो फिर संसार में रहते हुए भी दुःख - शोकादि से मुक्त हो जाओगे।

अपने स्वरूप का अनुभव करने के लिये वेद-शास्त्र पर विश्वास करके सद्गुरुओं के बताये अनुसार उपासना विधान का सहारा लेकर उपासना करते चलो।

*उपदेश ७२*
_विधि के साथ भगवान् का नाम जपो_

समय तो किसी न किसी रूप में लोग उपासना के लिये देते ही हैं परन्तु विधान के बिना जाने उसका फल विपरीत ही होता है, अनुकूल नहीं होता। पहले तो इसका ज्ञान होना चाहिये कि कहाँ से उपासना का प्रकार सीखा जाय । ऐसा नहीं कि जहाँ से जो मिलता देखो वहीं से लेलो, पर जहाँ से शास्त्र लेने को कहता है वहीं से लेना चाहिये ।

सन्तान चाहते हो तो ऐसा नहीं कि जहाँ भी पड़ी मिले वहीं से उठा लो । विधि पूर्वक विवाह करो, विधानानुसार गर्भाधानादि संस्कार कराओ, तब जो सन्तान होगी वह काम की होगी ।

इसी प्रकार कोई भी काम किया जाय, यदि विधान से किया गया तो उसका फल उत्तम होगा। यह पक्ष बिल्कुल अनर्थकारी है कि-
"उत्तम विद्या लीजिये, यदपि नीच पर होय ।"

यह कहावत तभी से चली है जब से कुम्हार, तेली आदि सब शिक्षक होने लगे हैं । पहिले तो उत्तम विद्या नीच में जा ही नहीं सकती और यदि आ भी गई तो वह नीच नहीं रह सकता। उत्तम विद्या और नीचता दोनों एक साथ कैसे रह सकती हैं— प्रकाश जहाँ जाता है वहाँ अंधकार नहीं रहता।

गंगाजल पीना है तो नाबदान से क्यों पियें, धारा का क्यों न पियें। सन्तान ही चाहना है तो वैध सन्तान क्यों न उत्पन्न करें। उत्तम विद्या ही लेनी है तो उत्तम स्थान से क्यों न ली जाय।

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिक ब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
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*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*
*_【अत्यंत महत्वपूर्ण संदेश】_*

*उपदेश - ७३*
_ऊंकार का जप_

बहुत लोग शास्त्र - विधान देखकर और अधिकार- अनधिकार का विचार न करके केवल यहाँ-वहाँ से महात्म्य पढ़-सुनकर ही उपासना में प्रवृत्त हो जाते हैं। कुछ लोग ॐकार को बहुत महत्वशाली मानकर उसी का जप करने लगते हैं। गीता में भगवान् ने कहा अवश्य है कि प्रणव मैं हूं। किन्तु यदि इसी कारण भगवान् का स्वरूप मान कर भगवान को अपनाते हो तो उसी प्रकार सिंह को भी क्यों पकड़ नहीं रखते, क्योंकि वह भी तो ( ओंकार के समान) भगवान का स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा है कि-

'मृगानां मृगेन्द्रोऽहं ।'

ॐकार के महात्म्य से प्रेरित होकर जो लोग केवल ऊँकार का ही जप करते हैं उनकी क्या दशा होती है, यह हम अपने अभी तक के अनुभव से बताते हैं, सुनो-

दो, चार, दस, बीस बार नित्य ॐकार जप से तो कोई विशेष बात नहीं होती। परन्तु यदि दो-चार हजार जप नित्य होता रहे तो थोड़े ही समय में लौकिक परिस्थिति कमजोर हो जायगी। संखिया मारक है, परन्तु थोड़ा-थोड़ा खाया जाय तो उसका असर उतना शीघ्र नहीं होता। यदि थोड़ी भी मात्रा अधिक हो जाय तो मारक तो है ही । इसी प्रकार केवल ॐकार का जप विशेष रूप से करने वालों की लौकिक व्यवस्था अवश्य कमजोर हो जाती है; रोजी-रोजगार में कमी हो जाती है; स्त्री पुत्र आदि अस्वस्थ रहते हैं और मर भी जाते हैं ।

पाँच-छ: वर्ष पहिले हम लक्ष चण्डी यज्ञ के समय लखनऊ गये थे। उस समय एक वृद्धा हमारे पास आई और दो-चार लोग भी उसके साथ आये। उन लोगों ने कहा कि माता जी बड़ी भक्ता हैं, दिन भर भजन-पूजन में लगी रहती हैं, पर अभी थोड़े ही दिन हुए कि इनके दो पुत्र युवावस्था में मर गये। इसके उत्तर में हमने उनसे पूंछा कि 'ॐकार का जप करती हो क्या ?" उसने कहा कि महाराज ! वही तो हमारा आधार है, दिन भर जप किया करती । हमने कहा कि अच्छा हुआ आपने संसार को तो जप डाला, अब न छोड़ना । परन्तु उसके लगाव से वह चीज ही नष्ट हो जायगी, यही ॐकार के जप का फल है । या तो कहीं प्रेम न करो और यदि प्रेम करोगे तो वह प्रेमास्पद पदार्थ ही ॐकार के जप के प्रभाव से नष्ट हो जायगा । इसी लिये गृहस्थों को केवल ॐकार के जप का अधिकार नहीं है ।

शास्त्र जो अधिकार नहीं देता है वह कल्याण की दृष्टि से नहीं देता। यदि ॐकार जप से गृहस्थों को लाभ होता तो कोई कारण नहीं था कि शास्त्र उनके लिये निषेध करता मन्त्रों के आगे जो ऊँकार जोड़ देते हैं वह माङ्गलिक अर्थ में होता है। दूसरी बात यह है कि स्त्रियों को ऊँकार युक्त मन्त्र के जप का निषेध है। जहाँ पुरुषों के मन्त्र के प्रारम्भ में 'ऊँकार' लगाया जाता है वहाँ स्त्रियों के मन्त्र के आगे 'श्री' लगाया जाता है ।

भगवान् शङ्कर ने पार्वती को उपदेश करते हुए कहा है कि ऊँकार सहित मन्त्र का जप स्त्रियों के लिये विष के समान होता है और ऊँकार रहित मन्त्र के जप से ही स्त्रियों का कल्याण होता है।विचार करना चाहिये कि शङ्करजी अपनी पत्नी को ज्ञान का उपदेश कर रहे हैं, परन्तु ऊँकार को बचा रहे हैं । यदि स्त्री जाति के लिये ऊँकार लाभदायक होता तो अपनी अर्द्धाङ्गिनी को उपदेश करते हुये शङ्करजी ऊंकार का उपदेश क्यों न करते।

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*उपदेश - ७४*
_क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री जाति के लिये गुरुत्व नही_

शास्त्रों में स्त्री जाति के लिये गुरुत्व कहीं नहीं बताया। स्त्रियाँ गुरु नहीं हो सकतीं। गार्गी, चुड़ाला, सुलभा आदि स्त्रियाँ ज्ञानी और योगी भी हो गई हैं। परन्तु यह कहीं भी नहीं मिलता कि उन्होंने किसी को अपना शिष्य बनाया हो।

भगवान का भजन पूजन करते हुए साधन सम्पन्न होकर ज्ञान की प्राप्ति तो सब कर सकते हैं, भगवान की भक्ति में सब का अधिकार है, परन्तु गुरु सब नहीं बन सकते | गुरुत्व केवल ब्राह्मण ही को है। ब्राह्मण के अतिरिक्त क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शिष्य तो हो सकते हैं, पर गुरु नहीं। स्त्रियों को भी गुरु बनने का अधिकार नहीं है।

जनक-राज विदेह इतने बड़े ज्ञानी थे, परन्तु क्षत्रिय होने के नाते उन्होंने गुरु बनने का प्रयत्न कभी नहीं किया। जिस समय शुकदेव जी को व्यास जी ने जनक जी के पास ज्ञान की शिक्षा लेने के लिये भेजा, उस समय जनक जी ने पूछा कि आप किस लिये पधारे हैं ? शुकदेव जी ने कहा कि आपसे ज्ञान को शिक्षा लेने के लिये पिता जी ने भेजा है। जनकजी ने कहा कि आप ब्राह्मण हैं, हम क्षत्रिय हैं, आपको उपदेश करने का अधिकार हमें नहीं है। इसलिये शास्त्र विरुद्ध हम आपको कैसे उपदेश करें ।

शुकदेवजी ने कहा कि आप क्षत्रिय हैं तो दान देना तो आप का धर्मं ही है । शास्त्र आपको दान देने की आज्ञा तो देता ही है; आप हमें ब्रह्मविद्या का दान दे दें । यह सुन कर जनकजी ने शुकदेव जी को उच्चासन पर बैठा कर उनका पूजन किया और दान रूप में उन्हें ब्रह्म-विद्या दी। पर शिष्य बनाकर जनक जी ने उपदेश नहीं किया। यह है समर्थ लोगों का शास्त्रीय मर्यादा - पालन का आदर्श । आजकल कायस्थ, वैश्य, तेली, कलवार भी कपड़ा रंग-रंग कर साधू का वेष बना लेते हैं और लोगों को अपना शिष्य बनाने के लिये लालायित रहते हैं । इस प्रकार के गुरु और शिष्य दोनों ही पतन को प्राप्त होते हैं। जो बातें हम कहते हैं वह शास्त्रानुकूल ही कहते हैं, अपनी मनगढ़न्त बात हम कुछ नहीं कहते।

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*उपदेश - ७५*

_स्त्री समाज को केवल पति परायण_
_ही रह कर कल्याण_

स्त्रियों में स्वभाव से ही रजोगुण अधिक रहता है । इसलिये अधिकांशतः ध्यान-समाधि की ओर वे सफलता पूर्वक अग्रसर नहीं हो सकतीं। इसीलिये उन्हें एक पति-परायण रहने का विधान है। निरन्तर पति-परायण रहकर स्त्री अन्त काल में पति का स्मरण करती हुई ही शरीर त्याग करेगी, जिससे उसका जन्म पुरुष योनि में होगा। क्योंकि यह सिद्धान्तहै कि जिस-जिस भाव से जीव शरीर छोड़ता है उसी-उसी भाव को प्राप्त होता है-

यं यं वापिस्मरन भावं,त्यज्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवेति कौन्तेय,सदा तद्भाव भावितः॥ -"गीता"

स्त्री यदि भगवान का चिन्तन करती हुई शरीर त्यागे तब तो भगवान में मिल ही जायगी, इसमें सन्देह नहीं । परन्तु स्त्री-प्रकृति रजोगुण प्रधान होने के कारण उनमें चाञ्चल्य अधिक होता है। इसलिये भगवान स्वरूप में उनकी वृत्ति टिकना कठिन रहती है। साथ ही यह भी बात है कि पुरुष- चिन्तन का स्वभाव स्त्री का स्वाभाविक हुआ करता है । इस लिये पति-परायण होकर सदा पतिभावापन्न रहना ही उनके लिये शास्त्र में श्रेयस्कर बताया गया है। पति-परायण रहेगी तो अन्त काल में भी पति का स्मरण करती हुई शरीर त्याग कर पुरुषयोनि को प्राप्त हो जायगी और अगले जन्म में भगवत् परायण होकर भगवान में मिल जायगी ।

स्त्री-योनि महा कष्टकारी योनि है - गर्भ धारण और प्रसव - काल में तो मरण के समान महा भयंकर दुःख होता है।उसके बाद भी सन्तान के पालन-रक्षण आदि में जों कष्ट होते हैं, वह स्त्रियाँ ही जान सकती हैं, दूसरा कोई इसकी भयंकरता का अनुमान भी नहीं लगा सकता । इस प्रकार अत्यन्त कष्टदायिनी स्त्री-योनि से जीव को मुक्त करके पुरुष-योनि में लाने के लिये ही पातिव्रत्य का इतना विधान शास्त्र में किया गया है। यह सब स्त्रियों के कल्याण के लिये ही है।

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*उपदेश - ७६*

भगवान् के आज्ञारूप वेद शास्त्र के अनुसार चलिये

धनवान व पुत्रवान होने के लिये तो सब लोग प्रयत्न करते हैं, परन्तु आचार्यवान होने के लिये वे अधिक प्रयत्न नहीं करते। आचार्यवान होना ही समस्त सुख शान्ति को प्राप्त करना है। किसी को गुरु मान लेने से वह आचार्य नहीं कहा जाnसकता, जिसमें आचार्य के लक्षण हों वही आचार्य कहा जा सकता है। आचार्य ही किसी को आचार्यवान बना सकता है ।

श्रुति-स्मृति ममैवाज्ञे,यस्तोंल्लंघ्य वर्तते ।
आज्ञोच्छेदी ममद्रोही,मद्रभक्तोपि न मे प्रियः ॥

अर्थात्, श्रुति-स्मृति मेरी आज्ञा है। उसका उल्लंघन जों कोई मरता है वह चाहे मेरा भक्त ही क्यों न हो, वह मुझे प्रिय नहीं लगता ।

इसलिये भगवान की आज्ञा - रूप श्रुति-स्मृति [वेद-शास्त्र] की ही प्रधानता मानी जाती है ।

हम वेद-शास्त्र की ही बात सुनाते हैं, अपनी कोई मनगढ़न्त बात नहीं कहते। हमने कभी नहीं कहा कि हमारी बात मानो। क्योंकि हमारी व्यक्तिगत बात मानोगे तो शङ्कराचार्य की बात मानने की आदत पड़ जायेगी। फिर यदि कोई नालायक भी इस गद्दी पर आ गया तो उसकी भी बात मानोगे । किसी के भी व्यक्तिगत विचारों से कल्याण नहीं होगा, कल्याण तो वेद-शास्त्र की बातें मानने से होगा।

इसलिये हम कहते हैं कि शङ्कराचार्य की व्यक्तिगत बात मानने की आदत मत डालो, वेद-शास्त्र के अनुसार जो कहें वही मानो।

शास्त्र कहता है कि वेद-शास्त्र भगवान् की आज्ञा है। भगवान् के भक्तों को तो अवश्य ही भगवान् की आज्ञारूप वेद-शास्त्र का पालन करना चाहिये । जब तक भगवान मिले नहीं हैं तभी तक उनकी आज्ञा का पालन करना आवश्यक है । जब भगवान से मिल जावोगे तब तो भगवद्रूप ही हो जाओगे ; उस समय आज्ञा पालन का कोई प्रश्न ही नहीं रह जायगा।

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*अनंत श्री विभूषित शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी का संक्षिप्त परिचय और अतुलनीय योगदान*

*महाराज श्री के ९९ वर्धापन दिवस की बधाई हो समस्त सनातनी धर्मानुरागी हिन्दू जनता जनार्दन को*

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हर हर महादेव
*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ७८*

*जगद्गुरु किसे कहते हैं ?*

संसार में आस्तिक व नास्तिक दो श्रेणी के लोग हैं :

नास्तिक जगत् के तो कोई गुरु होते नहीं। आस्तिक जगत् का गुरु हो उसे ही जगद्गुरु कहना चाहिये । आस्तिकों में दो प्रकार की निष्ठा पाई जाती है — कुछ लोग साकार ब्रह्म में निष्ठा रखते हैं और कुछ की निष्ठा निराकार में होती है। जो साकार-वादियों और निराकार-वादियों दोनों का गुरु होने की क्षमता रखता हो, वही जगद्गुरु कहा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि साकार देवताओं में जो पंचदेवता वैदिक हैं, अर्थात भगवान विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य और गणेश, इन सब की उपासना का प्रकार समझाने वाला जो हो और जो इन पंचसाकार देवताओं में निष्ठा न करके निर्गुण निराकारवादी है उसको भी जो उपदेश कर सके वही जगद्गुरु है । एक-एक देवता की उपासना का प्रकार समझाने वाले लोग उसी प्रकार हैं, जैसे एक-एक रोग की दवा की एक-एक शीशी रखने वाले टुटपु जिया वैद्य लोग जो कम्पाउन्डर की भी हैसियत नहीं रखते और कहते हैं अपने को सिविल सर्जन। कोई अपने पुत्र का नाम 'राम' रखले तो कौन रोक सकता है। परन्तु नाम मात्र से तो वह राम नहीं हो जाता । कोई अपने नाम के आगे जगद्गुरु लिखने लगे तो उसे रोके कौन ? किन्तु जब जगद्गुरु के लक्षण पूछने लगते हो तो लक्षण- युक्त जगद्गुरु वही है जिसके दरवाजे से किसी भी देवता में निष्ठा रखने वाला निराश होकर न लौटे। आधुनिक सम्प्रदायों ने शिव, शक्ति, विष्णु आदि की उपासनाओं के सम्बन्ध में जो बटवारा किया गया है वह अनुचित है। पंचदेवताओं में कोई छोटा-बड़ा नहीं है। सभी देवता अपने भक्त का समान रूप से कल्याण करने में समर्थ हैं जितने उपासक हैं सभी वैष्णव हैं; क्योंकि सभी देवता भगवान के ही अंग हैं। भगवान का स्वयं कथन है कि -

"ज्ञानं गणेशो मम चक्षुरकः,शिवो ममात्मा ममशक्तिराद्या।
विभेद बुद्धया मयि ये भजन्ति,ममाङ्गहीनं कलयन्ति मन्दाः॥"

अर्थात् गणेश जी भगवान के मस्तिष्क हैं, सूर्य भगवान के नेत्र हैं, शिव भगवान की आत्मा, आद्या भगवती भगवान की शक्ति है । इसलिये इन पंचदेवों को एक ही भगवान के भिन्न-भिन्न अङ्ग न मान कर जो इनमें परस्पर भेद-भावना मान कर इनमें से किसी एक की उपासना करते हैं, वे भगवान की उपासना नहीं करते बल्कि उनका अङ्ग- छेदन करते हैं ।

स्पष्ट है कि जो गणेश का खण्डन करता है वह चाहे विष्णु-भक्त हो, किन्तु भगवान विष्णु के मस्तिष्क का छेदन करने वाला होता है । कोई विष्णु भक्त यदि शिव का खण्डन करता है तो वह भगवान विष्णु की आत्मा का छेदन करता है । इसी प्रकार देवी का खण्डन करने वाला भगवान को शक्तिहीन करता है । इसलिये आज-कल के साम्प्रदायिक लोग जो परस्पर एक दूसरे से ईर्ष्या द्वेष करते हैं और अपने को वैष्णव कहते हुए भगवान शिव का या अपने को शैव कहते हुए भगवान विष्णु का खण्डन करते हैं, वे न शैव ही हैं और न वैष्णव ही - वे केवल दम्भी हैं । वैष्णव वही है जो भगवान विष्णु का भक्त है |

'विष्णौरतः वैष्णवाः' 'ऊर्ध्वपुण्ड्रवत्वं वैष्णवत्वम्'
'ऊर्ध्वपुण्ड्र वाले को वैष्णव कहते हैं – यह कोई सिद्धांत
नहीं है ।

जो भगवान विष्णु की उपासना करता है वह तो वैष्णव है ही।परन्तु सभी देवता भगवान के भिन्न-भिन्न अंग होने के कारण किसी भी देवता की उपासना करने वाला भी वैष्णव कहा जा सकता है। जिस समय किसी देवता की उपासना कर।रहे हो, उसी समय वैष्णव हो। समस्त आस्तिक- जगत् वैष्णव है।

केवल ऊर्ध्व-पुंड्र लगा कर अपने को वैष्णव और दूसरे को अवैष्णव कहने वाले वास्तविकता से अपरिचित हैं । वे भगवान विष्णु का अपमान करते हैं । कोई शिव भक्त या शक्ति उपासक यदि अपने को वैष्णव नहीं मानता है तो यह भी उसकी भूल है। कोई भी संसार में ऐसा नहीं है जो वैष्णव नहीं। संप्रदाय-वादियों की फिरकेबाज़ी न उनके काम की चीज है और न दूसरे की ही।

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ब्रह्मलीन जगतगुरु शंकराचार्य का यह वक्तव्य खरे अर्थ में वर्तमान में बहुत ही लग रहा है, क्योंकि आजकल कोई भी बुद्धि का लठ्ठ अपने आपको *जगतगुरु* या *सद्गुरु* घोषित कर रहा है, यह कथित *नवसंप्रदायवाद* ने वैदिक धर्मियों को इकठ्ठा नही सम्प्रदाय के नाम पर बांटा है यह नग्न वास्तविकता है। इसलिए श्रीवैदिकब्राह्मणः। गुजरात समूह आप सब से अनुरोध करता है इन धार्मिक संस्थाओं जैसे कोई पीछे समाज लगाता है,कोई पीछे परिवार लगाता है, कोई पीछे मिशन लगाता है तो कोई पीछे सम्प्रदाय सब धर्म के नाम पर धंधा चलाते है, आपके जेब से करोड़ो रूपीए के मंदिर बनाकर शान से ऐसी में आराम करते है महंगी गाड़ियों में घूमते है। इनके के चक्कर में न पड़े। संस्थाकीय भक्त न बनें सनातन मूल परम्पराओं से जुड़े।
- एडमीन क्षेत्रज्ञ
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*उपदेश - ७९*

सत्संग की बातों का मनन करना आवश्यक

शुकदेव जी ने भागवत सुनाया, हजारों लोगों ने सुना, परन्तु उसके प्रभाव से मोक्ष केवल परीक्षित को ही हुआ । गोकर्ण से भी बहुतों ने सुना, परन्तु मोक्ष केवल धुंधकारी को हुआ। इस पर यह प्रश्न उठता है कि वृष्टि व्यापक हो और तृप्ति एक मनुष्य को हो—यह कैसी बात है ! बात यह है कि मोक्ष का सम्बन्ध मन से है। जिसका मनन किया जाता है उसी संस्कार दृढ़ होता है और संस्कारों की दृढ़ता पर ही जीव का बन्धन या मोक्ष निर्भर करता है। श्रुति और स्मृति ( अर्थात् वेद और शास्त्र) दोनों का यही सिद्धान्त है-

"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः” ।
—श्रुति ।
"ध्यान एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः” ॥
- याज्ञवल्क्य स्मृति ।,

जो सिद्धान्त या जो भगवत् सम्बन्धी वार्ता सत्संग में सुनी जाय, उस पर भली प्रकार विचार करके उसको मनन करते रहना चाहिये ।

सत्संग की बातें सुनने से कर्ण तो पवित्र होंगे। परन्तु यदि उन पर कुछ विचार नहीं किया गया, कुछ मनन नहीं किया गया, तो वह सब कर्ण तक ही रह जायगा और एक कर्ण से होकर दूसरे से बाहर निकल जायगा। सत्संग की सारी बातों का प्रयोजन मन ( अन्तःकरण ) को पवित्र करना है । मन ही प्रधान वस्तु है । मन यदि अपवित्र रहा तो इसी के कारण जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा और यदि मन पवित्र हो गया तो उसी से मोक्ष हो जायगा। महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने ध्यान को ही बंधन या मोक्ष का कारण बताया है । ध्यान मन ही करता है। मन पवित्र हुआ तो भगवान् का ध्यान करता हुआ मनुष्य मोक्ष प्राप्त करेगा और यदि मन अपवित्र रहा तो नाना प्रकार की वासनाओं में फंसा रह कर अनर्थ चिन्तन करता हुआ, अनावश्यक वस्तुओं का ध्यान करता हुआ, संसार-चक्र में मन उसे घुमाता रहेगा।

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*उपदेश - ८०*
_घरमें रहते हुए ही महात्मा बनो_

जो जहाँ है, वह वहाँ रहते हुए ही महात्मा बन सकता है। गेरुआ वस्त्र या तिलक छाप से कोई महात्मा नहीं होता।वेश कल्याणकारी नहीं, निष्ठा से कल्याण होता है। मन की वृत्ति में महात्मापन होता है। इसलिए जहाँ हो, वहीं रहते हुए मन की धारा को बदलो – संसार का चिन्तन भीतर से कम करो और परमात्मा का चिन्तन बढ़ाओ।

आजकल अचिन्त्य को चिन्त्य मान लिया गया है । मुख्य चिन्त्य परमात्मा ही है। उसका चिन्तन न करके अचिन्त्य संसारी पदार्थों का चिन्तन किया जाता है। इसलिए सुख शान्ति का अनुभव नहीं होने पाता। यदि प्राणों का रक्षण केवल सांसारिक कार्यों और विषय-भोगों के लिए है तो वह लुहार की धौंकनी ही है। अतः प्राण का पोषण करो और उसे परमात्मा में लगाओ।

पहले श्रद्धा उत्पन्न करो। धन में श्रद्धा है, तभी तो धन का चिन्तन करते हो। जब परमात्मा में श्रद्धा हो जायगी तो उसी का चिन्तन होने लगेगा। विचार करो कि धन आदि समस्त सांसारिक पदार्थ यहीं पड़े रह जायगें और आगे की यात्रा अकेले ही करनी पड़ेगी। उस आगे की यात्रा के लिए अभी से कुछ तैयारी कर लो - परमार्थ में श्रद्धा बढ़ाओ, नित्यानन्द स्वरूप परमात्मा से प्रेम बढ़ाओ। जो चीज यहीं पड़ी रह जाने वाली है उसमें, अर्थात् जगत् की व्यावहारिक चीजों में केवल शिष्टाचार बनाओ और मुख्य श्रद्धा परमार्थ में करो, जो साथ जायगा ।

एक बार भी निश्चय हो जाय कि वह रुपये का ढेर मदारी का बनाया हुआ है, तो फिर चाहे कोई कितना भी लालच देगा पर उसमें प्रेम नहीं हो सकता । मदारी के क्षणिक रुपये के समान ही संसार के समस्त पदार्थ और सम्बन्ध क्षणिक ही हैं। इसलिए इनसे व्यवहार तो करो और ऊपर से शिष्टाचार पूरा रखो । मन के भीतर इनका स्थान मत बनाओ। मन में नित्य अविनाशी आनन्द स्वरूप परमात्मा को स्थान दो। मन में हमेशा भगवान् का स्मरण बना रहे और मर्यादा का उल्लंघन न हो - यही महात्मापन है।

*उपदेश ८१*
_धन-संग्रह से अधिक प्रयत्य_
_बुद्धि शुद्ध करने के लिए करो_

सन्तान के लिए धन-संग्रह करने में आप लोग जितना प्रयत्न करते हैं उसका आधा प्रयत्न भी यदि बुद्धि-शुद्ध करने के लिए करें तो बहुत लाभ हो।

बुद्धि शुद्ध रही तो धन कम रहते हुए सन्तान सुख शान्ति का अनुभव कर सकती है । पर यदि बुद्धि दूषित रही तो अनन्त धन-धान्य रहते हुए भी दुर्वासनाओं में पड़कर सन्तान दुःख और अशान्ति ही भोगेगी। इसलिए प्रथम बुद्धि शोधन के लिए प्रयत्न करो, पश्चात् वन-संग्रह करो।

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*उपदेश - ८१*

_बिना ज्ञान के न भक्ति हो हो सकती है और न मोक्ष ही_

जितने कर्म मनुष्य एक जन्म में करता है उसका फल इतना अधिक होता है कि कई जन्मों में भी भोग कर समाप्त नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि संचित कर्मों की अनन्त राशि प्रत्येक जीव के लिए भोगने को पड़ी है। उसको भोगने के लिए अनन्तानन्त जन्म-धारण करना पड़ेगा। यदि उसे भोग कर समाप्त करना है तो जब तक संचित कर्म नष्ट नहीं होंगे तब तक जन्म-मरण के चक्कर से छूटोगे नहीं।कर्मराशि को समाप्त करने के लिए ही ज्ञानाग्नि उत्पन्न की जाती है । जो अपनी संचित कर्म राशि को ज्ञानाग्नि से भस्म कर देता है उसी को बुधजन 'पंडित' कहते हैं-

_"ज्ञानाग्नि दग्धकर्माणं तमाह: पंडितं बुधाः !”_

कोई मनुष्य एक मिनट में किसी को कत्ल कर दे तो उसे यदि फांसी न हुई तो आजन्म काला-पानी या बीस वर्ष की सजा अवश्य ही होगी। इसी प्रकार और भी कार्यों के उदाहरण से यही मालूम होता है कि २-२, ४-४ मिनट में किये कर्मों का फल वर्षों भोगना पड़ता है तो जीवन भर में किये कर्मों का फल कितने जन्मों तक भोगना पड़ेगा, इस का कुछ ठिकाना नहीं । इसीलिये ज्ञान का महत्व है कि ज्ञान हो जाने पर समस्त संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं।

_“यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।_
_ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥"_

अर्थात्, जैसे प्रज्वलित अग्नि इंधन को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि समस्त (संचित) कर्मों को भस्म कर देती है। इसलिये ज्ञानाग्नि से वंचित को नष्ट करो और प्रारब्ध को शान्तिपूर्वक भोग डालो।

अपने संचित कर्मों को नष्ट करने के लिए ज्ञान की प्राप्ति करना ही सबसे बड़ा कार्य है। ज्ञान प्राप्ति के बाद फिर कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। यथा-

_"ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः।_
_नैवास्ति किंचित्कर्तव्यं अस्ति चेन्नस तत्त्ववित्॥”_

ज्ञानी के लिए लिखा है कि यदि उसका मनोराज्य किसी कार्य के लिए हो तो उसे ऊँकार का जप करना चाहिये-

_"बुद्ध तत्वेन धी दोष शून्येनेकान्तवासिनः।_
_दीर्घं प्रणवमुच्चार्य मनोराज्यं विलीयते॥"_

ज्ञान हो जाने के बाद बिदेह मोक्ष तो होता है, पर जीवन्मुक्ति के लिए उसे भी अहंग्रहोपासना का सहारा लेना पड़ता है। पहले अपरोक्ष ज्ञान होता है अर्थात् शास्त्र और गुरुओंके द्वारा यह निश्चय होता है कि एक अद्वितीय परमात्मा सर्वत्र चराचर में परिपूर्ण है, वह सच्चिदानन्द अखण्ड ज्ञानस्वरूप है। ऐसा निश्चयात्मक, संशय विपर्यय रहित बोध ही अपरोक्ष ज्ञान है।

प्रहलाद को पहले से ही यह ज्ञान था कि हमारा राम सर्वत्र परिपूर्ण है। ऐसा उन्हें निश्चय था, इसलिये वे अहर्निश भगवान का चिन्तन करते रहते थे। जब तक भगवान् को कोई जानेगा नहीं, तब तक उनकी भक्ति ही क्या करेगा। भगवान् को सर्वत्र चराचर में जान लेना ही ज्ञान है और उनकी सेवा-पूजा करने लगना भक्ति है। भक्ति के द्वारा उन्हें एक देश में प्रकट करके उनका साक्षात्कार करना ही विज्ञान है और विज्ञान के बाद उसी भाव में तल्लीन हो जाना परा भक्ति है।

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिक ब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
https://www.instagram.com/shrivaidikbrahmanah
*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ८३*
_अच्छे कार्यों को जल्दी करो_

संसार का अनुभव जीव अनेक जन्मों से करता चला आ रहा है। संसार की ओर उसकी प्रवृत्ति स्वाभाविक हो गई है। इसको संसार से हटाकर परमात्मा की ओर लगाने में ही प्रयत्न करना है। पुरुषार्थ वास्तव में मन को संसार से रोकने के लिए करना है। भगवान का भजन-पूजन, चिंतन-कथन आदि होता रहे, इसी में मन घूमे तो कुछ समय में संसार से स्वतः हट जायगा।

व्यवहार में यह नीति रखनी चाहिये कि अच्छे कर्मों को, भगवत्संबन्धी कार्यों को तो जल्दी से जल्दी पूरा करने की कोशिश रहे और यदि कोई बुरा संकल्प उठे तो उसको उसी समय टालना चाहिये कि कल कर लेंगे या परसों कर लेंगे-इस प्रकार बराबर उसे टालते रहना चाहिये।

*उपदेश ८४*
_भगवान् से लाभ उठाना चाहते हो तो उपासना करके उन्हें एक देश में प्रकट करो_

व्यापक निराकार भगवत्सत्ता से कोई कार्य नहीं हो सकता, वह तो साक्षी मात्र है। वह जब माया का सहारा लेकर एक देश में आती है तभी माया के त्रिगुणात्मक व्यवहारिक जगत् में कुछ कार्य करती है। जैसे निराकार अग्नि काष्ठ में सर्वत्र व्यापक होते हुए उस काष्ठ को नहीं जलाती और न उससे कुछ कार्य ही लिया जा सकता है। किन्तु जब उसे घर्षण करके काष्ठ को भी जला सकती है और इच्छानुसार उससे कार्य लिया जा सकता है। इसी प्रकार व्यापक भगवत्सत्ता जब उपासना द्वारा एक- देश में प्रकट की जाती है तभी वह व्यवहारोपयोगी हो सकती है।

उपासना ही ऐसा सोपान (सीढ़ी) है जिससे भक्त भगवान के पास पहुँचता है और भगवान् भक्त के पास आते हैं। उपासना ही के द्वारा सर्वत्र चराचर में एक-रस रमी हुई भगवान् की सत्ता एक देश में प्रकट होकर भक्त की इच्छानुसार कार्य करती है। निर्गुण निराकार सत्ता जब सगुण साकार होती है तभी कुछ व्यावहारिक कार्य होते हैं। इसलिए भगवान से लाभ उठाना चाहते हो तो उपासना करके उन्हें अपने हृदय में या बाहर कहीं भी प्रकट करो। एक बार भगवान का उद्घाटन हृदय में हो जाय तो फिर जन्म की सारी गरीबी मिट जायगी।

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*उपदेश - ८५*

सुख चाहते हो तो सुख-सागर की ओर चलो

जो वस्तु जहाँ होती है वहीं से वह प्राप्त की जा सकती है। धन चाहते हो तो धनिकों के पास मिलेगा, विद्या चाहते हो तो विद्वान् के पास जाना होगा। यदि हीरा-मोती खरीदना है तो सराफा में जाने से मिलेगा, साग के बाजार में ढूंढ़ने से हीरा नहीं मिलेगा चाहे जितना परिश्रम करो। इसी प्रकार सुख-शान्ति चाहते हो तो सुख-स्वरूप व शान्ति स्वरूप परमात्मा के पास जाने से ही सुख-शान्ति की प्राप्ति हो सकती है। इधर-उधर चाहे जितना सिर पीटते रहो, संसार में चाहे जितना परिश्रम करो, सुख-शान्ति से भेंट न होगी।

जितना-जितना संसार में परिश्रम करके, धनार्जन करके या मान प्रतिष्ठा प्राप्त करके सुख शान्ति प्राप्त करने के लिए करोगे, उतना-उतना दुख और अशान्ति ही हाथ लगेगी। सुख मान लेना तो दूसरी बात है - मान लो कि अमुक वस्तु मिल जाय तो मैं सुखी हो जाऊँगा; और वह वस्तु मिल गई तो ऐसा मानो कि मैं सुखी हो गया । इस प्रकार मान लेना तो दूसरी बात है। परन्तु विचार करो तो यहाँ की किसी भी वस्तु में न सुख है, न शान्ति है।

संसार की चकाचौंध में पड़कर अनन्त आनन्द स्वरूप परमात्मा को भूल गये हो। ईश्वर के विमुख होने से ही दुःख आया है, और वह दुःख उसी के सामने से जायगा। संसार की बाहरी चीजों में इतना भूल गये हो कि स्वयं अपने सम्बन्ध में ही भ्रम हो गया है— यही पता नहीं है कि हम हैं कौन !

जो इतना बावला हो गया हो,कि स्वयं को भूल गया हो,अपने ही स्वरूप को न पहचान पाता हो, उस पागल को क्या कहा जाय । वह तो ऐसा कर ही सकता है कि प्रकाश पाने की इच्छा से किसी अँधेरी गुफा में घुस जाय । संसारी पदार्थों से सुख-शान्ति की इच्छा करना इसी प्रकार है जैसे प्रकाश की इच्छा वाले का अँधेरी गुफा में प्रवेश करना।

सुख चाहते हो तो सुख-सागर जो परमात्मा है उसकी ओर चलो। परमात्मा की ओर चलोगे तभी सुख-शान्ति मिलेगी और लौकिक-पारलौकिक ऐश्वर्य भी मिलेगा । जिस प्रकार प्रकाश से विमुख होने पर अँधकार घेर लेता है, वैसे ही परमात्मा से विमुख रहोगे तो दुःख और विपत्तियाँ घेर लेंगी।



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*उपदेश - ८६*
_भगवान का भजन अवश्य करो--मन लगे या न लगे_

दुष्ट चित्त से, मलिन चित्त से भी भगवान् का स्मरण किया जाय तो भी वे पापों का नाश कर देते हैं, जैसे कि बिना इच्छा के भी यदि अग्नि को छू लिया जाय तो भी वह जला ही देती है। भगवान् में प्रेम बनाना तो कठिन है क्योंकि अनेक जन्मों का बिगड़ा हुआ मन है, सहसा भजन के लिए बैठो अवश्य । मन भागता है तो भागने दों, पर तुम उसके साथ मत उठकर भागने लगो। भजन करने बैठो और मन बाहर जाय तो चिन्ता नहीं, वे मन के ही माला फेरते बैठे रहो - ऐसा नहीं कि मन हटा और तुम उठ खड़े हुए। धीरे-धीरे मन भी लगने लगेगा, घबराना नहीं चाहिये । परन्तु एक बात अवश्य ध्यान देने की है कि भगवान् का भजन तो करो, पर पाप से अवश्य बचते रहो। ऐसा मत सोचो कि भगवान के भजन से पाप कट ही जायेगा तो क्यों न थोड़ा और कर ले। यदि पाप करने लगोगे तो फिर पाप ही तुम्हे भगवान के भजन से भी हटा देंगे - यह भी निश्चय रखो।

*उपदेश ८७*
_'ज्ञान से भगवान् के दर्शन का भाव रखना ठोक है या प्रत्यक्ष का ?'_

यह दोनों प्रकार से होता है। जिस प्रकार से वे सामने आयें, जिस रूप में वे सामने आये, उसी रूप में देखो, हठ नहीं करना चाहिये । साकार रूप में आयें, तो उसी रूप में देखो और निराकार रूप में रहें तो वैसी ही निष्ठा बना लो । परन्तु नित्य के अपने अभ्यास के लिये एक आधार बनाकर नियम बना लेना चाहिये। साकार में वृत्ति टिकने का आधार स्पष्ट ही है। निराकार में निष्ठा करनी हो तो मन को नेत्र बनाकर देखना चाहिये । यह अवश्य है कि नियम बना लेना चाहिये । अभ्यास करते-करते, ध्यान करते-करते, इष्टदेव में प्रेम बढ़ जाता है और जहाँ प्रेम बढ़ा कि इष्ट का साक्षात् हो जाता है।

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*उपदेश - ८८*
_भक्ति और ज्ञान, निराकार और_ _साकार के झगड़ों में न पड़ो_

भक्ति और ज्ञान के सम्बन्ध में परस्पर लोगों में बहुत सी बातें चला करती हैं। किसी के मत से ज्ञान बहुत बड़ा है।और किसी के मत से भक्ति बहुत बड़ी है । जिनको न भक्ति।का कुछ बोध है और न ज्ञान को ही कुछ समझते हैं, वे लोग ही भक्ति और ज्ञान सम्बन्ध में भेद मानकर परस्पर झगड़ा।मचाते हैं। इस सम्बन्ध में यह बात कही जा चुकी है कि परमात्मा को जान लेने का नाम ज्ञान है और जान कर सेवा करने का नाम भक्ति है।

जिसको जानोगे नहीं, उसकी सेवा क्या करोगे। इसलिये स्पष्ट है कि बिना ज्ञान के भक्ति नहीं हो सकती। जो ज्ञान का खण्डन और भक्ति का समर्थन करते हैं या जो भक्ति का खण्डन और ज्ञान का समर्थन करते हैं, वे दोनों ही नहीं समझते, दोनों अन्धे हैं । अन्धों की बात का क्या विश्वास करना — आँखों वाला कोई बात कहे तो मानी भी जाय ।

कई लोग साकार निराकार का भेद मान कर बड़ा विवाद उठाते हैं। परमात्मा को यदि सर्वं शक्तिमान् मानते हो तो फिर कैसे कह सकते हो कि वह साकार नहीं होता या निराकार ही रहता है। परमात्मा को सर्व शक्तिमान् मानते हुए यह कहना कि वह निराकार हो है, साकार नहीं होता, सर्वथा असंगत बात है। जब उसे सर्वंतन्त्र स्वतन्त्र कहते हो तो फिर वह क्या नहीं हो सकता और क्या नहीं कर सकता भगवान के निर्गुण और सगुण रूप से समझने के लिये हम एक उदाहरण देते हैं— अग्नि सर्वत्र परिपूर्ण है । जल में भी अग्नि है, थल में भी अग्नि है, काष्ठ में भी अग्नि है, ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ अग्नि न हो। यह निर्विवाद सिद्ध है। कि अग्नि व्यापक है। अग्नि के समान ही परमात्मा सर्वत्र व्यापक है।

लकड़ी के चैले में जो अग्नि है वह निराकार रूप से उसमें स्थित है। यदि चैले को चूल्हे में डाल कर प्रार्थना करो कि अग्नि जल जाय, परन्तु प्रार्थना करने से अग्नि जलेगी नहीं। निराकार अग्नि से जब तक साकार अग्नि प्रकट नहीं होगी तब तक कुछ काम नहीं हो सकता । निर्गुण अग्नि रह जायेगी, परन्तु तुम्हारे काम नहीं आ सकती। इसी प्रकार अग्नि के समान ही निर्गुण, निराकर परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र चराचर में पूर्णतया व्याप्त होते हुए भी वह तुम्हारे किसी काम का नहीं है। जब कुछ काम होगा तो साकार ब्रह्म से ही होगा। यदि गुरु मिल जायँ तो चैले को घर्षण करके उसी में से साकार अग्नि प्रकट कर सकते हैं और मन चाहा काम ले लेते हैं । जब तक निराकार से साकार रूप में भगवान।प्रकट नहीं हो जाते, जब तक जरूरत का कोई कार्य नहीं बनता । इसी भाव को लेकर गीता में कहा है-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

'आत्मानं सृजामि' अर्थात में निराकार रूप से साकार होता हूँ। कब ? जब धर्म घटता और अधर्म बढ़ता है तब किस लिये भगवान को निराकार से साकार होना पड़ता है, यह बताते हुए कहते हैं-

परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥

साधुओं के कल्याण के लिए और दुष्कृतियों के संहार के लिए मैं प्रकट होता हूँ और धर्म की स्थापना करता हूँ। साधु शब्द से गेरुआ तिलक छाप या कंठी-माला वालों को न समझ लेना । साधु शब्द का अर्थ है - अच्छे साधु वृत्तीय पुरुष जो अच्छे स्वभाव वाले हैं, जो वेद शास्त्र की मर्यादा मानने वाले हैं, स्वधर्म - पालन में जिनकी निष्ठा है, उन्हीं के कल्याण के लिये भगवान् का अवतार होता है ।

यदि साकार रूप में भगवान् न आयें तो जगत् की व्यवस्था नहीं कर सकते । जो जैसी चीज होती है उसी रूप में उसकी व्यवस्था हो सकती है। जैसे हम यहाँ बैठे हैं, आप लोगों ने हमारे सामने लाउड स्पीकर लाकर रख दिया तो यदि हम मौन बैठे रहे तो आपको क्या लाभ होगा। निराकार का ऐसा ही स्वरूप है कि हम सर्वथा निश्चेष्ट मौन बैठे रहे ।

हमारे मौन बैठे रहने से आप लोगों को क्या लाभ हो सकता है ? निराकार भगवान् से कोई लाभ नहीं होता, जब तक साकार रूप में न आयें । जो बात जैसी है, हम वैसी हो कहते हैं। हमें आप लोगों को वेद-शास्त्र के सिद्धान्तों को ही बताना है, अपनी तरफ से कोई बात नहीं कहनी है | हमको स्पष्ट रूप से सिद्धान्त का विवेचन करते हैं। इसकी हमें परवाह नहीं कि इसको सुनकर कौन प्रसन्न होगा, कौन नाराज होगा।
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हमें न किसी का रञ्जन करना है और न किसी को प्रसन्न करने के लिये कुछ कहना है । निराकारवादियों हम पूछते हैं — वैसे तो हम भी निराकार को मानते हैं परन्तु जो केवल निराकार को मानते हैं और साकार को नहीं मानते, ऐसे ही लोगों को निराकारवादी कहा जाता है, ऐसे ही लोगों से हम पूछते हैं कि क्या लकड़ी के चैले में जो निराकार अग्नि है उससे क्या कोई लाभ उठाया जा सकता है ? निराकार अग्नि से कोई रोटी बनाकर
दिखाये। निराकार रूप तो केवल सत्ता मात्र है ।

निराकारवादी जो निराकार का ध्यान करते हैं, उस सम्बन्ध में हम उनसे पूँछते हैं कि क्या निराकार का ध्यान किया जा चकता है ? कोई ध्येय बनाया जायगा तभी उसमें वृत्ति टिकेगी। पर जो निराकार है उसको ध्येय कैसे बनाया जा सकता है ?

निराकार का ध्यान नहीं बन सकता। यदि कोई कहता है कि निराकार का ध्यान होता है तो उसका कथन उसी प्रकार है जैसे कोई कहे कि बन्ध्या के पुत्र की बारात में जा रहे हैं । बन्ध्या के पुत्र ही नहीं होता तो उसकी बारात कैसी ? निराकार की जब कोई रूप-रेखा ही नहीं तो उसका ध्येय कैसे बनेगा ? वृत्ति को जमाने के लिये कुछ तो आधार चाहिये । जिसका आधार लोगे वही साकार होगा ।

निराकार तत्व, ध्याता, ध्यान ध्येय, और ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय आदि त्रिपुटी से परे है। निराकार का ध्यान विडम्बना मात्र है। निराकार तत्व को न समझने वाले लोग ही निराकार के ध्यान की बात कर सकते हैं। निराकार तत्व केवल मानने के लिए हैं; सिद्धान्त रूप से वह स्वीकार किया जाता है केवल उसकी सत्ता मात्र है, उससे जगत् का कुछ उपकार नहीं हो सकता | क्या कोई निराकार लड़के से लाभ उठा सकता है ? निराकार स्कूल में जाकर कोई पढ़ सकता है ? निराकार कुर्सी पर कोई मिनिस्टर बैठ सकता है ? निराकार औषधि से कोई रोगी अच्छा हो सकता है ? निराकार भोजन से किसी की तृप्ति हो सकती है ? निराकार बिलकुल बेकार चीज है, उससे कुछ भी काम नहीं हो सकता । इससे केवल निराकारवाद सर्वथा अमान्य है, सर्वथा बेकार है।

निराकार चीज बीज के समान है, उसको उसी रूप में रखे रहो । बीज पेटी में बन्द पड़ा रहे, तो किस काम का ? तक उसे बोओगे नहीं, खनन सिंचन नहीं करोगे और जब तक वह पल्लवित पुष्पित नहीं होगा, तब तक उस बीज से क्या लाभ है ?

निराकार परमात्मा ब्यापक रूप से है, सर्वत्र है । फर्नीचर कमरे में भरा है और फर्नीचर के काष्ठ में निराकार अग्नि है, पर उस कमरे का अंधकार उस व्यापक निराकार अग्नि से नहीं हटता । यदि किसी फर्नीचर को रगड़ कर निराकार अग्नि को साकार रूप में प्रकट कर लिया जाय तो तुरन्त ही कमरे का अंधकार दूर हो सकता है । परन्तु जब तक अग्नि प्रकट नहीं होगी, वह निराकार रूप में साकार जगत् के व्यवहार में नहीं आ सकती। निराकार से जब वह साकार होगी तभी जगत का कुछ उपकार उससे हो सकता है।

यदि परमात्मा साकार नहीं हो सकता तो क्या वह तुम्हारा पशु है कि जैसा चाहो उसको बनाओ - वह परम स्वतन्त्र है । वेद कहता है :-

'सोऽक्षर : परम स्वराट्'
अर्थात, वह अक्षर अविनाशी है ।

परमात्मा परम स्वतन्त्र है । इसलिए 'वह निराकार ही है, साकार नहीं हो सकता या वह साकार ही है, निराकार नहीं है।' ऐसा मानने वाले परमात्म-तत्व के सिद्धान्त को नहीं समझते, केवल एक पक्ष बनाकर झगड़ा मचाते हैं । साकार-निराकार के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये । जो साकार है वही निराकार होता है। निराकार केवल मानने के लिए है और साकार जगत् का कल्याण करने के लिये ।

निराकार परमात्मा जब साकार रूप में प्रकट होता है तभी उसके निराकार रूप की प्रत्यक्ष सिद्धि होती है । काष्ठ को घर्षण करने से जब व्यापक निराकार अग्नि साकार रूप होकर एक वेष में प्रकट हो जाती है तभी प्रत्यक्ष रूप से यह निश्चय होता है कि काष्ठ में अग्नि थी । उसी प्रकार निर्गुण विराकार परमात्मा का संशय विपर्यय रहित बोध तभी होता है जब वह सगुण साकार रूप में प्रकट हो जाते हैं । जिसने काष्ठ को घर्षण करके अग्नि प्रकट कर लिया है, वही दावे के साथ निर्भ्रान्त रूप के कह सकता है कि काष्ठ में अग्नि रहती है । साकार रूप में अग्नि प्रकट हो जाने पर ही निराकार अग्नि का काष्ठ में अस्तित्व सिद्ध होता है । यदि काष्ठ से साकार अग्नि प्रकट न हो तो उसमें निराकार अग्नि का अस्तित्व ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहा जा सकेगा । जब साकार रूप में भगवान् प्रकट होते हैं, तभी यह निश्चय होता हैं कि निराकार रूप में भी बे हैं । साकार से ही निराकार की प्रत्यक्ष सिद्धि होती है — नहीं तो निराकार को कौन कैसे जान सकता है। जैसे अग्नि निर्गुण से सगुण होती है उसी प्रकार परमात्मा भी निर्गुण से सगुण होता है । यह बात सर्वथा अमान्य हैं कि निर्गुण से सगुण नहीं होता। निर्गुणवादियों के द्वारा ही समाज में अधिक पाप फैलता है क्योंकि ये लोग साकार भगवान को तो मानते नहीं और निराकार के लिये सोचते हैं कि वह तो कुछ देखता-सुनता नहीं, मन चाहा किया करते हैं; उन्हें पाप-पुण्य से कोई मतलब नहीं।

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*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ८९*
_अपने किये का फल तो भोगना ही पड़ेगा।_

चाहे आज या दस बरस के बाद या दस जन्मों के बाद, कभी न कभी अवश्य ही किये हुए कर्म का फल भोगना पड़ेगा । कोई भी कार्य छोटा हो या बड़ा, जो किया जायगा उसका फल होकर ही रहेगा । यह अवश्य है कि -
अत्युग्र पुण्यपापानां, इहैव फलमश्नुते ।

अत्यन्त उग्र पुण्य किया जाय या पाप किया जाय, अति प्रभावशाली कोई भी कार्य किया जाय तो उसका फल यहीं इसी जन्म में, जल्दी ही मिलता है। सामान्य पुण्य पापों का फल कालान्तर में जाकर मिलता है। पर ऐसा नहीं हो सकता कि किसी कार्य का फल न मिले ।

जो कर्मों के फल देने वाला है, वह सर्वज्ञ है। कर्म तो जड़ होता है और कर्म का फल भी जड़ ही होता है। जड़ कर्मों के फलों का नियामक चेतन परमात्मा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ है, व्यापक हैं । वह सबके सब कर्मों का ठीक हिसाब रखता है। जिसका जैसा कर्म होता है, उसको वैसा ही फल देता है । मनुष्यों की आँख बचाकर तो आप कोई कार्य कर सकते हो, पर परमात्मा के नेत्र में धूल नहीं झोंक सकते। उसकी आँख बचा कर कोई कार्य नहीं किया जा सकता। इसलिये ऐसा कार्य मत करो जिसको तुम पाप समझते हो । यह नहीं भूलना चाहिये कि पाप कर्मों का फल दुःख होता है । जो कर्म करोगे उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा। अच्छे कर्म करोगे तो सुख होगा और बुरे करोगे तो दुःख मिलेगा - यह निश्चय है | बबूल का वृक्ष लगाओगे तो उसमें कांटे ही होंगे, आम नहीं फलेंगे।

*उपदेश ९०*
जैसा मन में हो, वैसा ही कहो और वैसा हो करो

जिन दिनों में हम जंगलों में एकान्त में रहते थे, एक समय रीवां के पास किसी जंगल में नदी के किनारे एक मन्दिर था, उसी में ठहरे। कुछ दूर पर एक गाँव था। वहाँ का एक आदमी आया और उसने मन्दिर में पूजन किया और हमसे आकर पूंछा कि महाराज ! ज्ञानी लोग तो अपने ज्ञान के बल पर मोक्ष प्राप्त कर लेंगे, भक्त लोग अपनी भक्ति के कारण तर जायेंगे, और जो पतित हैं उनको पतित-पावन भगवान् का सहारा है तो फिर नरक में कौन लोग जाते हैं ? हमने कहा कि इसका उत्तर कल सबेरे देंगे। सबेरे वही आदमी आया । मन्दिर में जाकर भगवान् के सामने प्रार्थना के रूप में कहने लगा-

पापोऽहं पापकर्माऽहं, पापात्मा पापसम्भवः ।

इसी प्रकार के वाक्य बहुत देर तक कहता रहा, अर्थात् मैं पापी हैं, पापात्मा हूँ, पाप कर्म करने वाला हूँ। - यह सब कह कर जब वह हमारे पास आने लगा, तो हमने ब्रह्मचारी से कहा कि हटाओ यह पापी सबेरे-सबेरे कहाँ से सामने आ गया, इसका मुख देखने लायक नहीं है। हटाओ इस पापी को जल्दी से दूर करो।

हमारे सामने से हटकर उसने ब्रह्मचारी से कहा कि इतने पापी तो हम नहीं हैं जितना महाराज जी हमको समझ रहे हैं। यह सुनकर हमने उसको बुलवाया और कहा कि हम तुम्हें पापी नहीं कह रहे हैं, तुम्हारे कल के प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं ।

तुमको हमने पापी कहा तो तुमको बुरा लगा, इससे मालूम पड़ता है कि तुम भीतर से अपने को पापी नहीं मानते। परन्तु सबेरे-सबेरे आकर भगवान् के सामने यही कहते हो कि – पापोऽहं, पापकर्माऽहं-मैं पापी हूँ, पाप करने वाला हूँ। ऐसा तो भगवान् के सामने कहते हो, परन्तु अपने मन में अपने को पापी नहीं मानते। ऐसे ही 'मनसि अन्यत् वचसि अन्यत्' लोग नरक में जाते हैं कि जो मन में कुछ और रखें और ऊपर से कुछ और कहें । यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। मनुष्य को भीतर बाहर एकसा रहना चाहिये, जैसा मन में हो वैसा ही कहो और वैसा ही करो तो किसी दूसरे को भी तुम्हारे द्वारा धोखा न होगा और तुम भी सुखशान्ति का अनुभव करोगे।

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*उपदेश - ९१*

मन को संसार में अधिक न फँसाकर भगवान् की तरफ लगाओ

संसार में मन को अधिक फँसा देना ठीक नहीं । विचार से काम लेने की आवश्यकता है । तन, मन, धन - तीन ही हैं। यदि इन तीनों का ठीक-ठीक उपयोग करते बन जाय तो फिर अन्त समय में पछताना नहीं पड़ेगा। पहले की जो बिगड़ी सो बिगड़ी, पर ऐसा करो कि अब तो न बिगड़ने।पाये। वेद-शास्त्र का सहारा लेकर चलोगे तो पतन से बचे रहोगे। एक दिन यहाँ से जाना अवश्य है अतः चलते समय के लिये कुछ पूंजी इकट्ठी कर लो जो परलोक में सहायक हो । वस्तु का सदुपयोग करना ही बुद्धिमानी है। मन का सदुपयोग यही है कि उससे भगवान् का चिन्तन किया जाय । संसार का चिन्तन करना मन का दुरुपयोग है।

किसी के परोपकार में शरीर को लगाना, भगवान् के भजन-पूजन में लगाना, शरीर का सदुपयोग है । दूसरे को कष्ट देना, चोरी करना, ये सब शरीर का दुरुपयोग है। इसी तरह अच्छे कार्यों में धन को लगाना, यही उसका सदुपयोग है और बुरे कामों में लगाना दुरुपयोग है । 'दानं भोगो नाश : ' वन की तीन ही गति हैं - या तो दान में खर्च होगा या भोग में या नाश हो जायगा - यही इसकी अन्तिम गति है।

जो धन न भोगा जायगा, न दान दिया जायगा तो उसकी तीसरी गति होगी ही अर्थात् नाश हो जायगा । दान भी तीन प्रकार का है - सात्विक, राजस, तामस । सात्विक दान का उत्तम फल है । भोग का अर्थ यह नहीं हैं जैसा आजकल।लोग भोगते हैं। अत्यन्त विलासी जीवन ठीक नहीं । भोग भी मर्यादापूर्वक होना चाहिये । मन की तो कभी भी विषयों से तृप्ति नहीं हो सकती और न तृप्त होने की आशा ही रखनी चाहिये । इन्द्रियाँ शिथिल हो जायँ, किसी काम की न रह जायँ तो भी मन तृप्त नहीं हो सकता। भोग से किसी की तृप्ति होनी असम्भव है। थोड़ा सा अनुभव कर लो, तब भी वही बात है और दिन-रात उसी में लिप्त रहो तब भी वही बात । मदिरा एक कप पियो या दस बोतल पियो बात एक ही है । नशा करना है तो ऐसा नशा करो जो कभी उतरे नहीं, ऐसा नशा किस काम का कि धन भी गया और नशा भी उतर गया ।

भगवान् की प्राप्ति ही ऐसा नशा है जो एक बार आकर फिर नहीं उतरता । नशा तो वही करना चाहिये, जो कभी उतरे नहीं और उसी नशे में शरीर छूट जाय ।

मनुष्य जीवन में कोई काम करना हो तो सोच-समझकर।करो । ऐसा नहीं कि जो सामने आया, जैसे संगी-साथी।मिल गये, वही करने लगे। अपना हानि-लाभ देख कर काम।करना चाहिये । कुछ लोग सत्संग में इसलिये नहीं जाते कि उनका मद्य-मांस छूट जायगा । इस डर से सत्संग में न जाना, इससे भारी प्रमाद और क्या हो सकता है । स्वयं यदि उसे छोड़ने में असमर्थ हो तो संग अच्छा बनाओ । सम्भव है, सत्संग से ही लाभ हो जाय ! अन्धकार को हटाना है तो
प्रकाश का सहारा लो । प्रकाश के सामने अन्धकार अपने आप हट जायगा । प्रकाश के लिये चेष्टा करनी चाहिये । इसलिए संसार से मन को हटा कर परमात्मा में लगाना चाहिये, और वेदशास्त्र, साधु-महात्माओं की बात पर विश्वास करना चाहिये ।

हम तो कहते हैं, पहले संसार को भज लो, फिर भगवान् को भजो तो संसार वाधक नहीं होगा। संसार का भजना यही है कि इसके स्वरूप को जान लो । पहले संसार ही गुरु बनता है । कहीं कुटुम्बियों ने अपमान किया, कहीं पुत्र के द्वारा अपमान हुआ तो संसार से वैराग्य हो गया ।

इसलिये पहिले से हो सचेत होकर भगवान की ओर मन लगाने का अभ्यास करना चाहिये। जब तक हम धन संग्रह में समर्थ हैं तभी तक संसारियों का प्रेम है | हमेशा तो शक्तिशाली रहेंगे नहीं, एक दिन वृद्धावस्था आयेगो हो, तो जो कुटुम्बी लोग आगे चल कर।हमारे साथ करेंगे वह हम आज ही क्यों न जान लें ।

अभी हम उनको अपना प्रेमास्पद मानते हैं। जिस समय हमारी वह अवस्था आयेगी तो पछतायेंगे । फिर यही कहेंगे कि लड़का कहा नहीं मानता, बहू कहा नहीं मानती, जिसके लिए हमने इतना सब किया अब वही हमारा अपमान करते हैं । तो ऐसा क्यों करो जिसके लिये अन्त में रोना पड़े । अभी के उसके लिए सावधान हो जाओ । संसार में कोई किसी का नहीं है । सब अपने-अपने स्वार्थ के साथी हैं । जब तक जिसका स्वार्थ सिद्ध होता है तभी तक उसका प्रेम है। इसलिए इन लोगों की अश्रद्धा होने के पहले ही भगवान् की तरफ झुक जाओ। यदि अभी से भगवान् का भजन पूजन करते रहोगे, तो कुटुम्बियों के अपमान की परवाह नहीं होगी । प्रेमास्पद तो परमात्मा ही है, उससे ही प्रेम करो तभी सुखी रह सकते हो ।

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिक ब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
https://www.instagram.com/shrivaidikbrahmanah
*अनंतश्री विभूषितश्री ज्योतिर्मठ पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाभाग के १०८ उपदेश*

*उपदेश - ९२*

_भगवान् के पास पहुँचना है_
_तो उनके नाम का सहारा लो_

हनुमान भगवान् राम के अनन्य भक्त थे । उन्होंने भगवान् की इतनी सेवा की। परन्तु उसके बदले में कुछ चाहा नहीं - यह अनन्यता है । उच्च कोटि के सेवक के लिये कहना नहीं पड़ता; वह भाव को जानकर काम करता है । भगवान् राम ने हनुमान को सीता की खबर लाने के लिये ही भेजा था — इतनी ही आज्ञा थी कि पता लगाकर चले आओ। परन्तु हनुमान ने लंका को भी जलाया और रावण को लड़ने की चुनौती भी दी; क्योंकि वह जानते थे कि रावण का विनाश करना है— इसमें भगवान् प्रसन्न होंगे।
भगवान् तो कहते हैं कि-

दुराचाररतो वामि मन्नामभजनात्कपे ।
सालोक्यमुक्तिमाप्नोति न तु लोकान्तरादिकम् ॥

अर्थात्, दुराचारी भी यदि हमारा भजन करता है तो वह अन्य लोक-लोकान्तरों में न जाकर हमारे सालोक्य मोक्ष को प्राप्त करता है ।

सालोक्य मोक्ष में भगवान् में लीन होने में कुछ बिलम्ब तो होता है, परन्तु गर्भवास से तो मुक्त हो ही गया । फिर इस संसार में वह लोटकर नहीं आता। दुराचारी मनुष्य जब भगवान् का भजन करने लग जाता है, तो वह भी धर्मात्मा हो जाता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि दुराचार-पापाचार भी करते चलो और भगवान् का भजन भी । भगवान् का भजन करनेवाला दुराचारी कैसे रह सकता है ?

भगवान् के पास पहुँचना है, तो उनके नाम का सहारा लो । भगवान् तो अपनाने के लिये तैयार हैं, हमारी हो तरफ से कमी है। भगवान् तीन हाथ से तो जगत् का कार्य करते हैं. परन्तु एक हाथ खाली रखते हैं। उदाहरण है — जैसे स्त्रियाँ जब पानी भरने जाती हैं, तो दो घड़ा एक के ऊपर एक सर पर रख लेती हैं और एक हाथ में रस्सी व डोल, परन्तु एक हाथ खाली रखती हैं । बच्चा जब माता की गोद में आने के लिये रोता है तब वह कहती है कि मेरा चरण पकड़ ले तो मैं एक हाथ से उठा लूं । उसका कोई व्यापार बन्द नहीं होता । उत्पत्ति, पालन, संहार यही घड़े हैं - इन तीनों कामों को करते हुए भी भगवान् अपना एक हाथ भक्त के लिये खाली रखते हैं। परन्तु उपाय यही है कि भगवान् का चरण पकड़ लो तभी वह उठा सकते हैं, ऐसे नहीं । भगवान् की सेवा-पूजन करना, उनका भजन करना, यही भगवान् का चरण पकड़ना है । भगवान् को अगर अपना लिया तो भगवान् भी तुम से दूर नहीं रह सकते । भगवान् का भजन करते-करते शरीर छूट गया, तो फिर जन्म-जन्म की दरिद्रता मिट जायगी।

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हर हर शंकर 💐🚩
संकलन : पं.हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिक ब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
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#नकली_धर्मप्रचारकों_का_भंडाफोड़

आपको जिन शांकर मठो के प्रचारकों पर विश्वास है या अन्य जो संप्रदाय है उनके प्रचारकों पर विश्वास है ! वो प्रचारक स्वयं शांकर सिद्धांत भी या जो सो मत के सिद्धांत को जानते है?

अभी हम जैसे "उदाहरण के तौर" पर शंकराचार्य मठों के प्रचारको का ही करें तो,आपने कभी उनके साथ सैद्धांतिक बात की है?क्या वे लोग सामान्य शांकर सिद्धांत या सामान्य शास्त्रीय सिद्धांत को भी जानते है?

आप जनसामान्य उन लोगों का बड़ा ग्रुप दबदबा देखकर चकाचौंध देखकर जुड़ तो जाते बाद में आप भी उन लोगों जैसे *सिद्धांतविहीन* बन जाते है। आप किसी भी ५ प्रचारकों को यादृच्छिक रूप से पकड़िए और उन्हें सामान्य वैदिक धर्मसिद्धांत,शंकर परम्परा के सिद्धांत और शंकराचार्य मठों का संविधान पूछिए यह लोग वास्तव में कुछ नहीं जानते, इनको केवल जो सो सम्प्रदाय में जो अमुक लाभ पाने हेतु पहले सीनियर जुड़े होते है उनकी आज्ञा का पालन करना होता है,आप भावुक होकर हिन्दू धर्म को बचाने के लिए शीर्ष आचार्य का मुख देखकर जुड़ते है वो आपको मूर्ख समझते है एक और मुफ़्त का प्रचारक जुड़ गया। फ़िर आप जैसे सामान्य लोगों की भावनाओं का लाभ उठाकर यह मठ के गुट में भी रहते है और अपना विशेष गुट भी बनाते है ताकि स्वयं को मठ प्रशासन के सामने प्रतिभाशाली साबित किया जाए।

बड़े बड़े प्रकल्प चलाकर अन्य के प्रति अपनी मर्यादा का उल्लंघन एवं सम्प्रदाय के संविधान का अतिक्रमण ही इन लोगों का आशय है। पुनः इन लोगों को न कोई गुरु से लेना देना है न कोई सम्प्रदाय से न धर्म से न शास्त्र से न किसी भी प्रकार हिन्दुधर्म के सिद्धांत से, केवल आर्थिक उपार्जन के लिए मठ से लिंक बनाई हुई होती है, ताकि *मठ या संस्था के नेटवर्क* के दम पर उनके धंधे का भी प्रचार हो।यह लोग अपना धंधा चलाने के लिए मठ के नेटवर्क में सेंध करते है, और अपने निजीस्वार्थवश मठ के नेटवर्क का अपने लाभ के लिए उपयोग करते है, वास्तव में इन लोगों को शंकर सिद्धांत के साथ कोई लेनादेना नहीं होता केवल अपने स्वार्थवश अपने आप को मठ से जुड़ा या मठ का प्रचारक बताकर आपको उनके बिज़नेस की भी स्किम दे देतें है। यहीं आजकल न केवल शंकर सम्प्रदाय तमाम सम्प्रदाय तथा धार्मिक संस्थाओं में चलता है।

आगे सुनिए, इनके गुरुओं के आपके घर पदार्पण के भाव यह सुनिश्चित करते है(गुरु नहीं) जहां कम से कम एक लाख से लेकर पांच लाख तक कथित दक्षिणा के तौर पर मांगे जाते है।

मठ में रह रहे, शीर्ष आचार्य निःसंदेह ही विद्वान होते है किन्तु उनके अलावा कोई भी पांच - सात यादृच्छिक रूप से ब्रह्मचारी या भगवावस्त्र पहने व्यक्ति को पकड़िए उनको सामान्य हिन्दू शास्त्रीय सिद्धांत पूछिए,उनके मूल सम्प्रदाय के संविधान के सिद्धांत पूछिए उनकी ही गुरु परम्परा के १० पूर्व आचार्यो का नाम पूछिए। आपको स्वयं को पता चल जाएगा कि यह कितने योग्य है।

मठ या संस्थाओं के अंदर क्या चल रहा है, वहां शास्त्रीय नियमो का पालन हो रहा है कि नहीं? शीर्ष आचार्य के साथ घूमते तमाम लोग उनके साथ रहकर भी ज्ञान युक्त है कि नहीं? *वह लोग जातिय एवं आचार के परीक्षण से ब्रह्मचारीत्व या सन्यासी बनने के लायक भी है या नहीं।*

कुछ तो अपनी तमाम मर्यादाओं का उल्लंघन कर चुके है। जो पटल पर ला भी नहीं सकते।

इनसे सामान्य जुड़े लोगों या अनुयायियों के साथ कदाचित कोई जिम्मेदार व्यक्ति के द्वारा गलत भी होता है तो भी वो बेचारे बंध मुह सह लेते है। मठ के आंतरिक लोग में भावना हो न हो बाहर से जो जुड़े है वो लोकलज्जा और मठ की मर्यादा, मान बने रहे ऐसी भावना से मौन का सेवन करते है।

अन्य सम्प्रदाय मैं जैसे बोला यही एक जैसा ही पैटर्न है। विदेशों में धनलालसा से मंदिर बनाए जाते है, अपनी अमर्यादित भक्तो की संख्या के कारण राजनीति दलों के भी यह लोग अनुगमन करते है की आपके जो सो संस्था या सम्प्रदाय के इतने अनुयायी है आपको हमारी सरकार से यह वो लाभ मिलेंगे ऐसा कर वोट बटोरे जाते है।

ऐसे भी बहुत यानी बहुत सारे पहलू है जो सार्वजनिक तौर पर नहीं बोले जाते जिनके अनुभव में आया वे स्वयं ही जानते है। किंतु लोकलज्जा से भी वो मौन रहते है।

*हिन्दू धर्म को बचाना है तो आवाज़ उठाइए और जहां शास्त्र विरुद्ध का कृत्य या आप के साथ निजी तौर पर ऐसी घटना हुई तो सार्वजनिक करिए ताकि और भी जनसामान्य लोग यह जाल से बचे।*

अब आपको क्या करना है। आचार्य चाणक्य का वचन है,वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
यह मत भूलिए परम्परा,सम्प्रदाय,धार्मिक संस्थाओं आदि के समकक्ष कुलीन ब्राह्मण की गृहस्थ परम्परा है, और सन्यासी आपके दूसरे क्रम के गुरु है,पहले क्रम के गुरु हम सब कुलीन गृहस्थ ब्राह्मण है यही शास्त्र सिद्धांत है। यही #निर्णय है। केवल योग्य गृहस्थ ब्राह्मण गुरु के अभाव में ही अन्य परम्परा का आलंबन ले सकते है तब तक आपके प्रथम गुरु गृहस्थ ब्राह्मण है। चुप न रहें बोले आपके साथ अगर कोई छल हुआ है तो सामने
2024/07/01 14:13:48
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