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*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : ८०/३५० (80/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*तृतीयऽध्याय : कर्मयोग*

*अध्याय ०३ : श्लोक ४१(3:41)*
*तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।*
*पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥*

*शब्दार्थ—*
(तस्मात्) इसलिए (भरतर्षभ) भारत में श्रेष्ठ पुरुष अर्जुन! (त्वम्) तू (आदौ) पहले (इन्द्रियाणि) इन्द्रियों को (नियम्य) वश में करके (एनम्) इस (ज्ञान-विज्ञान-नाशनम्) ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने वाले (पाप्मानम्) महापापी काम को (ही) अवश्य ही (प्रजही) मार।

*अनुवाद—*
इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।

*अध्याय ०३ : श्लोक ४२ (03:42)*
*इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।*
*मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥*

*शब्दार्थ—*
(इन्द्रियाणि) इन्द्रियोंको स्थूल शरीर से (पराणि) पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म (आहुः) कहते हैं, (इन्द्रियेभ्यः) इन इन्द्रियोंसे (परम्) अधिक (मनः) मन है, (मनसः) मनसे (तु) तो (परा) उत्तम (बुद्धिः) बुद्धि है (तु) और (यः) जो (बुद्धेः) बुद्धिसे भी (परतः) अत्यन्त शक्तिशाली है, (सः) वह परमात्मा सहित आत्मा है।

*अनुवाद—*
इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है।

शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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*आत्मबोध🕉️🦁*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा से सर्व प्रकार के भयों से निर्भयता प्रदान करने की सुन्दर प्रार्थना*

*यतोयतः समीहसे ततो नोऽअभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥*

*(यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र 22)*

*मन्त्रार्थ—*
हे भगवन् ईश्वर! आप अपने कृपादृष्टि से (यतोयतः) जिस-जिस स्थान से (समीहसे) सम्यक् चेष्टा करते हो (ततः) उस उससे (नः) हमको (अभयम्) भयरहित (कुरु) कीजिये (नः) हमारी (प्रजाभ्यः) प्रजाओं से और (नः) हमारे (पशुभ्यः) गौ आदि पशुओं से (शम्) सुख और (अभयम्) निर्भय (कुरु) कीजिये।

*व्याख्या—*
हे दयालु परमेश्वर! जिस-जिस देश/स्थान से आप सम्यक् चेष्टा करते हो उस-उस देश से हमको अभय करो, अर्थात् जहाँ-जहाँ से हमको भय प्राप्त होने लगे, वहाँ-वहाँ से सर्वथा हम लोगों को अभय (भयरहित) करो तथा प्रजा से हमको सुख करो, हमारी प्रजा सब दिन सुखी रहे, भय देनेवाली कभी न हो तथा पशुओं से भी हमको अभय करो, किंच किसी से किसी प्रकार का भय हम लोगों को आपकी कृपा से कभी न हो, जिससे हम लोग निर्भय होके सदैव परमानन्द को भोगें और निरन्तर आपका राज्य तथा आपकी भक्ति करें।

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*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस: १२८/३५० (128/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु आत्मसंयमयोग नाम षष्ठोऽध्यायः*

*अध्याय ०६ : श्लोक २५ (06:25)*
*शनै: शनैरुपरमेद्‍बुद्ध्या धृतिगृहीतया।*
*आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥*

*शब्दार्थ—*
शनै:—धीरे-धीरे; शनै:—एकएक करके, क्रम से; उपरमेत्—निवृत्त रहे; बुद्ध्या— बुद्धि से; धृति-गृहीतया—विश्वासपूर्वक; आत्म-संस्थम्—समाधि में स्थित; मन:— मन; कृत्वा—करके; न—नहीं; किञ्चित्—अन्य कुछ; अपि—भी; चिन्तयेत्—सोचे।

*अनुवाद—*
धीरे-धीरे, क्रमश: पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।

*अध्याय ०६ : श्लोक २६ (06:26)*
*यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।*
*ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥*

*शब्दार्थ—*
यत: यत:—जहाँ-जहाँ भी; निश्चरति—विचलित होता है; मन:—मन; चञ्चलम्— चलायमान; अस्थिरम्—अस्थिर; तत: तत:—वहाँ-वहाँ से; नियम्य—वश में करके; एतत्—इस; आत्मनि—अपने; एव—निश्चय ही; वशम्—वश में; नयेत्—ले आए।

*अनुवाद—*
मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।

शेष क्रमश: कल

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*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा और धर्मरक्षक राजा की स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना*

*नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमैरमित्रमर्दय॥*

*(सामवेद » मन्त्र संख्या - 11)*

(देवता: अग्निः ऋषि: आयुङ्क्ष्वाहिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड: आग्नेयं काण्डम्)

*पद पाठ—*
न꣡मः꣢꣯ । ते꣣ । अग्ने । ओ꣡ज꣢꣯से । गृ꣣ण꣡न्ति꣢ । दे꣣व । कृष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मैः꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्र꣢म् । अ꣣ । मि꣡त्र꣢꣯म् । अ꣣र्दय ॥११॥

*मन्त्रार्थ—*
हे (देव) ज्योतिर्मय तथा विद्या आदि ज्योति के देनेवाले (अग्ने) लोकनायक जगदीश्वर अथवा राजन् ! (कृष्टयः) मनुष्य (ते) आपके (ओजसे) बल के लिए (नमः) नमस्कार के वचन (गृणन्ति) उच्चारण करते हैं, अर्थात् बार-बार आपके बल की प्रशंसा करते हैं। आप (अमैः) अपने बलों से (अमित्रम्) शत्रु को (अर्दय) नष्ट कर दीजिए ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है।

*व्याख्या—*
हे जगदीश्वर तथा हे राजन् ! कैसा आप में महान् बल है, जिससे आप निःसहायों की रक्षा करते हो और जिस बल के कारण आपके आगे बड़े-बड़े दर्पवालों के भी दर्प चूर हो जाते हैं। आप हमारे अध्यात्ममार्ग में विघ्न उत्पन्न करनेवाले काम, क्रोध आदि षड्रिपुओं को और संसार-मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करनेवाले मानव शत्रु-दल को अपने उन बलों से समूल उच्छिन्न कर दीजिए, जिससे शत्रु-रहित होकर हम निष्कण्टक आत्मिक तथा बाह्य स्वराज्य का भोग करें।

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‎Garvitsanatani से ऑडियो
2024/09/28 09:32:10
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