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(एक राजनेता के द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी महाराज के श्री चरणों मे गंगा अस्थि विसर्जन प्रवाह को बन्द कराने को लेकर निवेदन और शंकराचार्य जी महाराज की प्रतिक्रिया)
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प्रश्न- महाराज जी मैं साधु- संतो से आग्रह करता हूँ कि वे ऐसी प्रेरणा दें कि अस्थियों को गंगा में न प्रवाहित करें ताकि गंगा मैली न हों।

उत्तर- मैं जिन्होंने ऐसा वक्तव्य दिया है, उनसे अनुरोध करता हूँ कि वे गंगा जी की अभिव्यक्ति के प्रयोजन का ज्ञान प्राप्त करें।

केन्द्रीय और प्रांतीय शासनतंत्रो के द्वारा गोमुख , गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक जो विभिन्न दिशाहीन परियोजनाएं विकास के नाम पर क्रियान्वित की गई हैं, उनके कारण गंगा में जो विकृति आयी है, गंगा विलुप्त होने के कगार पर है
उसको समझने का प्रयास करके सबसे पहले टिहरी बांध की परियोजना जिस पर लाभ के स्थान पर हानि ही हानि है, और भविष्य में वह बांध तोड़ दिया गया या अकस्मात टूट गया तो विप्लव ही विप्लव है, उसको निरस्त करें।

केमिकल को लेकर विचार करें तो अस्थिविसर्जन को लेकर गंगा में प्रदूषण की प्राप्ति नहीं होती, लेकिन अस्थिविसर्जन को लेकर शास्त्रीय विधा है।

शास्त्रीय विधा कोई भी हो, वह अंधपरम्परा से रहित व दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा व्यवहारिक धरातल पर उसकी उपयोगिता ही सिद्ध होती है।

मन्त्री महोदय को, राजनेता महोदय को , सांसद महोदय को यह विचार करना चाहिए कि शासनतंत्र के द्वारा गंगा जी पर जो कुछ भी विकास के नाम पर अत्याचार हुआ है, उसको शासनतंत्र दूर करने का प्रयास करे।

अंग्रेजों ने चेतावनियां दी थी, उन चेतावनियों की धज्जी उड़ाकर उत्तराखण्ड की सरकार चाहे भाजपा रही हो या कांग्रेस ने बांध परियोजना, नहर परियोजना, सुरंग परियोजना, विद्युत परियोजना को क्रियान्वित किया।

गंगा जी का शिरोभाग आज कल उत्तराखंड में सन्निहित है।गंगा जी अविरलता, निर्मलता वहीं ही कुंठित और विलुप्त है।
ऐसी स्थिति में सचमुच में कोई राजनीतिक दल या विशेषकर भाजपा गंगा के प्रति आस्थान्वित है
तो हम लोगों से सम्पर्क साध कर गंगा के मौलिक स्वरूप को यथासम्भव उद्भाषित करें।

धार्मिक कृत्यों पर जो कि शास्त्रसम्मत है कटाक्ष करने की अपेक्षा सबसे पहले शासनतंत्र के द्वारा गंगा जी पर जो अत्याचार हुआ है उसको निरस्त करने का प्रयास करें।
गंगा के प्रति अत्याचार का अर्थ होता है- मानवता के प्रति, प्राणिमात्र के प्रति व अपने प्रति अत्याचार।

ये समझना चाहिए कि सगर के पुत्रों के अस्थिउद्धार की भावना से ही गंगा जी का अवतरण हुआ था। गंगा जी के अवतरण का मुख्य प्रयोजन और राज पांडु आदि की अस्थियों का विसर्जन भी गंगा में हुआ था।

महाभारत पढ़िए।
दिव्य नदियों में , प्राची - सरस्वती आदि नदियों में अस्थि विसर्जन की सनातन परम्परा है।

मैं एक संकेत करना चाहता हूं, राजा पाण्डु के शरीर को देशज वस्त्र, स्वदेशी शब्द का प्रयोग है। देशज वस्त्र के द्वारा आच्छादित किया गया व गंगा में उसे विसर्जन किया गया।

आज भी विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के नाम पर कुछ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई हो, उस विभाग में कम विद्यार्थी भी हों, उस विभाग को तोड़ा नहीं जाता।
तो गंगा के अभिव्यक्ति के प्रयोजन को पहले समझने का प्रयास करना चाहिए।
और वैज्ञानिक ढंग से शास्त्रसम्मत जो विधा है, उसको लेकर गंगा में कोई विकृति नहीं प्राप्त होती है।

और मैने भाजपा के अध्यक्ष शाह जी को, जब वो पहली बार मिलने पूरी में आये थे,
लगभग 75 मिनटों तक मेरे पास बैठे रहे। मैंने संकेत में कहा था -
' किसी के शरीर मे कैंसर हो, और तेल चुपड़ दें चमड़ी पर।
उससे कैंसर रोग दूर हो जाय सम्भव नहीं ।'
जगतगुरु शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती महाभाग की दुर्लभ वीडियो।। 26/09/1986

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- क्षेत्रज्ञ
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प्रश्न : गरीबों को दूध देने के बजाय शिवलिंग पर क्यों डाला जाता है ?
वक्ता : अनंतश्री जगतगुरु शंकराचार्य स्वामीश्री निश्चलानंद सरस्वती जी महाभाग।
जय गुरुदेव।।💐💐🙏🏼🙏🏼

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प्रतिदिन हजारों गौवंश को काटा जा रहा है यह देशद्रोह की पराकाष्ठा है, आन्तर्जातीय विवाह के नाम पर कुलीन बीजो को नष्ट करने का षड्यंत्र किया जा रहा है।
- अनंतश्री जगतगुरु शंकराचार्य स्वामीश्री निश्चलानंद सरस्वती जी महाभाग।
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(श्री वैदिक ब्राह्मण ग्रुप,गुजरात)
*मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामको 'आधुनिककरण' (सेकुलरकरण) का पक्षधर कहनेका अभिप्राय अवश्य ही विचारणीय पहेली है। धार्मिक और आध्यात्मिक प्रकल्प लौकिक, पारलौकिक उत्कर्ष और परमात्माकी प्राप्ति कराने में सर्वथा समर्थ है।*

*श्रीरामके नामपर व्यक्ति तथा समाजको उससे विमुख कर देहात्मभावभावित विनाशोन्मुख विकासको क्रियान्वित करनेका प्रकल्प कहाँ तक उचित है?*

*श्रीमज्जगद्गुरु - शङ्कराचार्य स्वामी निश्चलानन्दसरस्वती जी*
#प्रकृतिप्रदत्त
प्राप्त विभीषिकाने स्वस्थ मस्तिष्कसे विकासकी वर्तमान परिभाषा और उसके क्रियान्वयनकी भौतिकी विधापर विचार करनेकी परिस्थिति समुत्पन्न कर दी है।

प्रकृति परमेश्वरकी शक्ति है। उसकी अभिव्यक्ति आकाश, वायु, तेज, जल तथा पृथिवी उसके परिकर हैं। इनमें विकृति विप्लव है। इन्हींका सङ्घात हमारा जीवन है। बाह्य विकृति हमारे जीवनकी विकृति में हेतु है। हमारे जीवनकी विकृति बाह्य जगत् की विकृतिमें हेतु है।

प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्तिके विघातक बहिर्मुख जीवनकी संरचना विकास नहीं, विनाश है। अतःप्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्तिके पोषक प्रकल्पोंका क्रियान्वयन अपेक्षित है। तदर्थ महायन्त्रोंके प्रचुर आविष्कार और प्रयोगको प्रतिबन्धित, श्रमजीवी और बुद्धिजीवीकी विभाजक रेखाको विगलित करनेकी आवश्यकता है। तद्वत् परिश्रम और परस्पर सहयोगसे सुलभ सामग्रीके बलपर कुटीर और
लघु उद्योगका क्रियान्वयन अपेक्षित है। आध्यात्मिक मनीषियोंसे परामर्श लेकर नीति तथा अध्यात्मसमन्वित शिक्षापद्धतिके माध्यम से सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, सम्पन्न, सेवापरायण, स्वस्थ तथा सर्वहितप्रद व्यक्ति और समाजकी संरचनाका मार्ग प्रशस्त करना आवश्यक है।
जय गुरुदेव
आकाश का बीज ह है। अनुस्वार घटित ह को हं कहते हैं। वायु का बीज यं है। अनुस्वार घटित य को यं कहते हैं।
भगवान शिव के डमरू से निकले हुए जो 2 सूत्र हैं इनको याद करना चाहिए।
'हयवरट्', 'लण्'।

'हयवरट्' में 'ह', 'लण्' में 'ण' इत् संज्ञक हैं। बाकी जो अक्षर बचते हैं ह, य, व, र, ल- यह पंच भूतों के बीज मंत्र हैं। पांचो भूत हमारे लिए सुमंगल हों, शोधित हों; पुण्य दिव्य गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द से युक्त हों। यद्यपि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश के शोधन का प्रकल्प सनातन विधा से कालक्रम से यह राजनेता लोग अपना सकते हैं लेकिन हम व्यक्तिगत जीवन में सुख शांति के लिए नित्य ही 14 बार 'हयवरट् - लण्','हयवरट् - लण्' भगवान शिव के अनुग्रह से प्राप्त पांचों भूतों के विजाक्षर का जप करें, हमारे लिए पुरी पृथिवी, अंतरीक्ष भी सुमंगल हो।
आप महानुभावों ने भारत के माननीय प्रधानमंत्री के अनुरोध को हृदय से अपनत्व पूर्वक, आस्था पूर्वक अपनाया। मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री जो भी हों सामाजिक संगठन हों, राष्ट्र के हित में अगर उनके द्वारा कोई कार्य किया जाता है तो हम उदारता पूर्वक उसका सम्मान करते हैं, उसे अपनाते हैं। भगवत कृपा से सब सुमंगल हो। नारायण
जय जगन्नाथ जी
भगवान गणेशजी की आरती करते हुए पुरी पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती महाराज जी ।
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क्या आप दूरदर्शी हैं?
माना कि विविध प्रान्तोंमें तथा केन्द्रमें आपका शासन है। पूरे देशमें अन्य
राजनैतिक दल भी चर्चित सन्दर्भमें आपके प्रशंसक हैं। यहाँ तक कि विश्वस्तरपर भी आप तदर्थ प्रशंसाके पात्र हैं। परन्तु विचारणीय विषय यह है कि काम-राग-समन्वित बलको प्रबल मानकर सनातन देवीदेवताओंकी समर्चा तथा प्रतिष्ठाकी सनातन विधाके विध्वंसमें आपकी प्रीति तथा प्रवृत्ति प्रशंसकोंके सहित आपके लिए तथा देश और विदेशके लिए क्या सुमङ्गल सिद्ध होगी? ध्यान रखिये , जिस सनातन सिद्धान्तके
अनुसार जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, संहृति सम्भव है ; उससे खिलवाड़ सर्वथा अमङ्गल ही है। बन सके तो आप मुझ हितैषी और हितज्ञकी बात पर
अवश्य ध्यान दें।
श्रीमज्जगद्गुरु-शङ्कराचार्य स्वामी निश्चलानन्दसरस्वती
#सर्वत्र_प्रसारित_करें!!
देवताओं में #वर्णाश्रम का निरूपण किस आधार से होता है ?

"ब्रह्माजी" से लेकर "पत्थर" तक की #जाती(#वर्ण)का #शंकराचार्यजी के द्वारा निरुपण

कश्यपजी और अदिति के गर्भ से देवराज इंद्र प्रकट हुए – वह ब्राह्मण थे या नहीं लेकिन वहां देवराज की जाति क्षत्रिय है , कहाँ ? वृहदारण्यक उपनिषद् – कर्म चूँकि क्षत्रिय का करते थे , रक्षा का काम , राजा का काम , राजाधिराज – अब वे खुश हो गए – आपकी व्यवस्था कितनी ऊँची है कि वह मृत्युलोक में लागू नहीं है , अब वसु हो गए वैश्य , त्वष्टा आदि अमुक अमुक देवता शुद्र में ..
भगवान् विष्णु पर कौनसी वर्णव्यवस्था लागू है ?

कोई नहीं ब्रह्माजी पर लागू नहीं है और ब्रह्माजी पर लागू है तो प्रथम ब्राह्मण ब्रह्माजी है , विष्णु भगवान् पर वर्णव्यवस्था लागू नहीं है लेकिन उनको क्षत्रिय क्यों गिनते है , रक्षा का काम करते है इसलिए अपने पर क्षत्रिय का आरोप करते है और अपने पोते की लात को भी ब्राह्मण की लात..... भृगुलाता , माने पितामह हो गए क्षत्रिय और पोता हो गया ब्राह्मण , यह तो कल्पना ही नहीं कर सकते किसी भी ढंग से कि पितामह क्षत्रिय और पोता ब्राह्मण , यह कौनसी वर्णव्यवस्था है ?

भगवान् अपने में क्षत्रियत्व का आरोप करते है , नारायण तक तो वर्णव्यवस्था है ही नहीं , तो आर्यसमाजी प्रसन्न हो जाते है , हमने कहा – मृत्युलोक में वो अवर कोटि की वर्णव्यवस्था है , स्वामी दयानंद सरस्वती ने जो वर्णव्यवस्था बताया वह तो देवलोक में चरितार्थ है , वहां कर्म से ही जाति मानी जाति है , नहीं तो किस मुँह से हम कह सकेंगे कि देवराज इंद्र क्षत्रिय है , अग्नि को , चंद्रमा को कैसे ब्राह्मण कहेंगे !

सोम का अर्थ चंद्रमा भी है , सोम का अर्थ सोमलता भी है , चंद्रमा का नाम क्यों दे दिया सोमलता को , तिथि के हिसाब से पत्ते बनते है झड़ते है , शुक्ल पक्ष , कृष्णपक्ष , कायाकल्प में भी प्रयोग होता है !

जब कोई ब्राह्मण किसी राजकुमार को राजाधिराज के पद पर अभिसिक्त करते हैं तो एक मन्त्र बोलते है , “ सोमोस्माकं ब्राह्मणानां राजा “ ए राजकुमार सावधान – आपका अभिषेक हम राजाधिराज के रूप में कर रहें है , अभिषिक्त होने के बाद हम ब्राह्मणों पर शिकंजा मत कसना – हमारे राजा का हम परिचय देते है , सुन लो - “ सोमोस्माकं ब्राह्मणानां राजा “ अत्रीनंदन जो चंद्रमा है , हम ब्राह्मणों के राजा वें है , आप नहीं , क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों पर शासन नहीं –
इसमें मनोविज्ञान क्या है ?

मन के देवता सोम , चंद्रमा द्वारा हमारा मन इतना संयत है कि स्वप्न में भी कुमार्ग पर जाता नहीं , यह अर्थ हुआ , तो देवताओ में चन्द्रमा , अग्नि को ब्राह्मण बताया , अब वहां जो वर्णव्यवस्था है वह कर्म के आधार पर है , हो गया न !

एक थे कांग्रेस के राजस्थान के जौहरी , उन्होंने रत्नपरीक्षा नामक पुस्तक लिखी और जगजीवनराम बाबू को भेंट करने गए , कांग्रेसी थे कहा बाबूजी पढ़कर कोई टिपण्णी कीजिएगा , जगजीवनरामजी ने पुस्तक पढ़ी , बाद में कहा – अरे मै तो मनुष्यों में जातिपाती हटाने के लिए अभियान चला रहा हूँ , तुमने तो रत्नों की जातिपाती सिद्ध कर दी , उन्होंने कहा – बाबूजी यहाँ मै कांग्रेसी नहीं हूँ , रत्नों में जातिपाती न मानू तो रत्न निहाल नहीं करते रत्न घातक हो जाते है , ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र कोटि के रत्न होते है , ब्राह्मण को यदि शुद्र कोटि का रत्न दे देंगे तो ब्राह्मण ख़त्म हो जाएगा !

एक हमारे गुरुभाई बीमार पड़ गए , कोई चिकित्सक रोग न पकड़ पाए , गुरुदेव के पास लाए गए , महाराज ने कहा – कहो वेदांती क्या बात है सूखे जा रहे हो , कहा – महाराज दो चार दिन का जीवन और है , महाराज ने कहा – क्या बात है ?

कहा – कोई चिकित्सक इलाज नहीं कर पा रहा , महाराज का ध्यान उसके बाजू पर गया , कहा – ये क्या बाँध रखा है बाजू पर

कहा – महाराज जो आप अपने बाजू पर बांधे है

महाराज – अच्छा अच्छा , नक़ल है , इसे खोल दो नहीं तो मर जाओगे

उन्होंने कहा – आप ?

महाराज – हम पचा सकते है इसके तेज को तुम नहीं पचा सकते , रत्न का चमत्कार , हमने परख लिया तुम्हारे रोग का कारण रत्न है !
तो जगजीवनरामजी से कह दिया – आपकी बात नहीं मानी जाएगी यहाँ , नहीं तो हम बर्बाद हो जाएंगे , हमारा व्यापार ही रत्न का है , रत्न की जाति और मनुष्य की जाति को परख के जिस मनुष्य को जिस जाति का रत्न देना है उसी से हमारा व्यापार चलता है , तो जगजीवनरामजी ने कहा , मनुष्य में भी जाति होती है ? तो कहा जब रत्नों में जाति होती है तो मनुष्य में जाति है ही !

महाभारत में ब्रह्माजी से वर्ण व्यवस्था लागू है , विराट से , हिरण्यगर्भ से , भगवान् नारायण पर लागू नहीं है , वे ऊपर है , अरे सीधी बात कह दें – कर्म के फल के रूप में जिसको शरीर प्राप्त है , वहां से वर्णव्यवस्था है , ब्रह्माजी का जो जन्म होता है – कर्म के फलस्वरूप – कर्मोपासना के समुचित अनुष्ठान क
2024/09/25 20:23:53
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