Telegram Web Link
ये शहर भी अब मुझसे बेवफ़ाई करता है...

साथ तो रहता है मगर साथ नहीं देता है...!!
जुल्फों से कह दो इतना ना इठलाएं...

तुम हमारी हो, गालों- होठों वगैरह से ज़रा दूरी बनाएं...!!
उसनें कभी दिल से पुकारा ही नहीं मैं क्या ही करता...

कुआं मेरे अकेले इश्क़ के भरनें से भला क्या भरता...!!
मैं क्या बताऊं कैसा रहा मेरा अब तक का सफ़र...
मैं जिंदा रहा, मुझमें बाक़ी कुछ जिंदा ना रहा मगर...

तमाम लोग मिले, तमाम किस्से हुए, तमाम नए छतों की छांव मिली...
तमाम बातें हुईं, मगर जो सब था सब गया, अब सब कुछ है खंडहर...!!
फिर से अब मेरा जी भर गया है जीनेँ से...
कोई आओ फिर लगाओ मुझे सीनें से...

दो दिलासा कि ज़रूरी हैं हंसते रहना...
बुरी लगती है अंगूठी टूटे नगीनें से...

मैं क़िस्मत में नहीं मानता था पहले...
मगर मानने लगा हूं अब चंद महीने से...

सुना था बुरा करनें पर बुरा होता है...
गलत लगी ये बात आज देखा जब खुद आईने में...!!
मशवरा समझदार लोग दें तो ज्यादा बेहतर है...

मगर मशवरा कोई ना दे तो और बेहतर है...!!
कुछ शिकयत है, होगी ही...
कुछ बगवात है, होगी ही...

कुछ कमी तो है, होगी ही...
कुछ नज़ाकत है, होगी हो...

वो न समझेंगे, होगा ही...
वो गिराएंगे, होगा ही...

तुम संभल चलना,
बाक़ी तो होगा ही...!!
कुछ ताल्लुक मेरे गमों से मेरा ऐसा है...
जो ना हो तो लगता है की दिन कैसा है...!!

जो गए वो गए अब मैं उन्हें भूल चुका हूं...
अब तो लगता है मरना जीने जैसा है...!!

तुम कब से थे जानें की चाहत में क्या पता...
हम तो खुश थे तुम नहीं ये भरम जैसा है...!!
कुछ खयाल तुम भी करते तो बेहतर होता...

हम अकेले क्या क्या कर लें...!!
क्या करें की सलामत रखें ख़ुद को...

वज़ह तो पता है हमें बरबादी की...!!
मैं चाहता हूं की वो चुन ले मुझको...

ये शर्त है पहले की उसे मैं पसंद आऊं...!!
मैनें देखा है उसको किसी और के साथ बहुत खुश...

खुदा, मैं उसके लिए खुश रहूं या ख़ुद के लिए रोऊं...!!
कुछ कहना तो था मगर वक्त ना मिला...
कुछ शिकायत थी मगर वक्त ना मिला...
कुछ इश्क़ था निभाया वक्त तक...
साथ की तलब थी मगर वक्त ना मिला...!!
सफ़र की बात थी तो साथ वालों की बात हो...

बोझा उठानें को घूमने जाना नहीं कहते...!!
झूठ, इतना झूठ की क्या कहें
   शुक्र है उसमें ईमान नहीं था...

सच शायद उस वक्त हम सुन नही पाते
  अफ़सोस उसनें समझाना भी नहीं चाहा...!!
ऐसा नहीं कि हमनें भूलनें की कोशिश नहीं की...

मगर हुआ ये कि हर बार उसकी याद आ गई...!!
कहते थे कयामत तक साथ निभाएंगे,
अरे छोड़ो यार...

कहते थे बिना देखे कैसे सो जाएंगे,
अरे छोड़ो यार...

कहते थे हाल बताया करो हर शाम अपना,
अरे छोड़ो यार...

कहते थे दिन अधूरा लगता है मेरे बग़ैर,
अरे छोड़ो यार...

कहते थे जी नहीं पाएंगे मेरे बग़ैर,
अरे छोड़ो यार...

कहते थे झूठ नहीं कहते कुछ भी
बहुत हो गया सचमुच अब छोड़ो यार...!!
हज़ार गम रहे साथ में,
कुछ कहा न गया,
कुछ सुना न गया,
बहुत देर लगी,
ख़ुद समझने समझाने में,
लेकिन,
चंद कतरा आंसू
और बहुत कुछ साफ हो गया,
जैसे,
काले बादलों के बाद आसमान,
गाड़ी गुजरने के बहुत देर बाद स्टेशन,
हंसने के बाद दिल,
मरने के बाद देह,
वगैरह वगैरह वगैरह...

मगर इतनी ताक़त आसुओं में,

यकीनन रोने में बहुत ताक़त चाहिए,
अकेले में,
सबके सामने,
बिना मुंह छिपाए,
बिना खराब दिखनें के डर के,

काश पहले रो लेता,
काश....
काश....


मगर.........

काश ये सब हुआ ही न होता...

काश... !!
मैं सोच रहा हूं

शायद मैं सोच तो रहा था,
क्या अब नहीं हो सकता...?

पर अब वो पानें की इच्छा है भी और नहीं भी,

ख़ुद को भी जान पाने का नया चस्का है देखते हैं कब तक चलता है😀

ज्यादा तो नहीं टिकेगा मेरी खुशियों की तरह, या हो सकता है ये टिका रहे मेरे आत्मविश्वास की तरह।

हो तो सकता है।

पहले तो सबसे लडने को तैयार रहता था मैं, उसके लिए, वो चाहिए, वो चाहिए ही, ऐसा वाला दृश्य था। अब क्या हो गया?

लग रहा है मैं उसे जानने लग गया। शायद ज्यादा ही जानने लग गया। Philosophy में ऐसा कहते होंगे, मुझे तो नहीं पता, कि हद से ज्यादा जान जाना, आकर्षण कम करता होगा।

मुझे ऐसा लगता तो है पर हर मसअले के लिए नहीं, हर रिश्ते के लिए ये लागू कहां होता है।

किताबों को ही देख लें अगर तो ऐसा कई किताबों के साथ हुआ है की मैंने उन्हें कई बार पढ़ा, 5-6-7 और तड़प कम नहीं हुई।

हर दफा और बेहतर समझ में आई बात, कहानी और प्रखर हुई। पात्र बात करते नजर आए, आपस में नहीं, मुझसे।

बताते नजर आए अपनी वो भी कहानी जो किताब में शायद लेखक लिखना भूल गया हो, या वो जिसे मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता, लेखक भी नहीं।

असल जिंदगी के रिश्तों की एक खराबी है ये, की ज्यादा जान लेना समस्यात्क बन सकता है। पर वक्त की आदत है हर छोटे घाव भर देता है, ऐसा सुनने में आता है।

मेरे मम्मी पापा से भी कभी कभार बहस होती है, विचार अलग होते हैं, चिढ़ हो जाती है उस समय के छोटे हिस्से में, फिर ठीक हो जाता है सब। बिल्कुल पहले की तरह।

मैं नहीं मानता की रिश्ते में अगर गलतफहमी हो गई है तो वो रस्सी की गांठ को तरह हमेशा दिखाई या जनाई देगी। नहीं। कुछ ही वक्त बाद वो टूटे हिस्से आपस में मिलकर एक हो जाते हैं, पहले की तरह, या शायद पहले से ज्यादा मजबूत।

हो ही जाते होंगे, मैनें 10-15 बार प्रयास किया, शायद सफल रहा। हां, रहा तो।
शायद कुछ बार नहीं भी रहा, क्या फ़र्क पड़ता है, लेकिन कभी कभी चुभन, तड़प, पश्च्याताप नज़र आता है।

हां तो लगाव कुछ कम हो गया तो क्या, कुछ दिन बाद अपनें आप दिमाग़ ठिकाने आ जाता है, अपनी हालत, अपनी शक्ल, अपनी जिंदगी और अन्य रिश्ते देखकर।

लगाव कम हुआ होगा, होता है, होता रहेगा शायद उससे क्या। आगे जो होगा उम्मीद है अच्छा ही होगा... !!
सवाल ठीक था की मैं उस दलदल से निकला कैसे...

जवाब मिलते ही इत्तिला करता हूं आपको...!!
2024/06/29 18:53:24
Back to Top
HTML Embed Code: