श्री महालक्ष्मी अष्टक स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित :
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एकदा दुर्वाशा ऋषि द्वारा श्रापित देवराज इंद्र ने धन- वैभव हराकर कंगाल बन गया था। माँ महालक्ष्मी उसके लिए तीनों लोक से अदृश्य हो गए थे। उस समय इंद्र ने लक्षमी माता को वापस लाने के लिए यह अष्टक रचना किया था, जिससे लक्ष्मी जी उसके पास लौट आये थे।।
ॐ श्री गणेशाय नमः
(इन्द्र उवाच:)
नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते। शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते।।1।।
(देवराज इंद्र बोले-- मैं महालक्ष्मी की पूजा करता हूं, जो महामाया का प्रतीक है और जिनकी पूजा सभी देवता करते हैं। मैं महालक्ष्मी का ध्यान करता हूं जो अपने हाथों में शंख, चक्र और गदा लिए हुए है।।)
नमस्ते गरुड़ारूढे कोलासुरभयंकरि। सर्वपापहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।2।।)
(देवराज इंद्र बोले: पक्षीराज गरुड़ जिनका वाहन है, भयानक से भयानक दानव भी जिनके भय से कांपते है। सभी पापो को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरी। सर्व दुःखहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।3।।
(देवराज इंद्र बोले: मैं उन देवी की पूजा करता हूं जो सब जानने वाली है और सभी वर देने वाली है, वह सभी दुष्टो का नाश करती है। सभी दुखो को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
सिद्धिबुधिप्रदे देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी। मंत्रमुर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।4।।
(देवराज इंद्र बोले: हे आद्यशक्ति देवी महेश्वरी महालक्ष्मी, आप शुरु व् अंत रहित है। आप योग से उत्पन्न हुई और आप ही योग की रक्षा करने वाली है। देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
आद्यंतरहित देवि आद्यशक्ति महेश्वरी। योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मी नमो:स्तु ते।।5।।
(देवराज इंद्र बोले : हे देवि ! हे अदि- अन्त- रहित आद्यशक्ति ! हे महेश्वरी, हे योग से प्रकट हुई भगवती महालक्ष्मी, तुम्भे नमस्कार है।।)
स्थूलसूक्ष्म महारौद्रे महाशक्तिमहोदरे। महापापहरे देवि महालक्ष्मी नमोस्तुते।।6।।
(देवराज इंद्र बोले: महालक्ष्मी आप जीवन की स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। आप एक महान शक्ति है और आप का स्वरुप दुष्टो के लिए महारौद्र है| सभी पापो को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्हास्वरूपिणि। परमेशि जगन्मातारमहालक्ष्मी नमोस्तुते।।7।।
(देवराज इंद्र बोले: हे परब्रम्हास्वरूपिणि देवी आप कमल पर विराजमान है। परमेश्वरि आप इस संपूर्ण ब्रह्मांड की माता हैं देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
श्वेताम्बरधरे देवी नानालङ्कारभुषिते। जगतस्थिते जगन्मातारमहालक्ष्मी नमोस्तुते।।8।।
(देवराज इंद्र बोले: हे देवी महालक्ष्मी, आप अनेको आभूषणों से सुशोभित है और श्वेत वस्त्र धारण किए है। आप इस संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है और इस संपूर्ण ब्रह्मांड की माता हैं देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
।।फल स्तुति।।
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महालक्ष्मीअष्टकम स्तोत्रम् यः पठेत्भक्तिमानरः। सर्वसिद्धिमवापनोति राज्यम प्राप्तयोति सर्वदा।।9।।
(जो भी व्यक्ति इस महालक्ष्मी अष्टकम स्तोत्र का पाठ भक्तिभाव से करते है उन्हें सर्वसिद्धि प्राप्त होंगी और उनकी समस्त इच्छाएं सदैव पूरी होंगी।।)
एककालं पठेनित्यम महापापविनाशनं। द्विकालं यः पठेनित्यम धनधान्यसमन्वित: ।।10।।
(महालक्ष्मी अष्टकम का प्रतिदिन एक बार पाठ करने से भक्तो के महापापो विनाश हो जाता हैं। प्रतिदिन प्रातः व् संध्या काल यह पाठ करने से भक्तो धन और धान्य की प्राप्ति होती है।।)
त्रिकालं यः पठेनित्यम महाशत्रुविनाशनम। महालक्ष्मिरभवेर्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा।।11।।
(प्रतिदिन प्रातः, दोपहर तथा संध्या काल यह पाठ करने से भक्तो के शक्तिशाली दुश्मनों का नाश होता है और उनसे माता महालक्ष्मी सदैव प्रसन्न रहती है तथा उनके वरदान स्वरुप भक्तो के सभी कार्य शुभ होंते है।।)
अष्टक आधारित तथ्य :
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महालक्ष्मी अष्टक का पाठ देवराज इंद्र द्वारा माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए किया गया था। इस स्तोत्र में किस प्रकार इस पाठ को करने से भक्तों को फल की प्राप्ति होगी, वो बताया गया है। अपने जीवन सुखी, समृद्ध एवं खुशहाल बनाने के लिए इस अष्टकम का पाठ जीवन मन्त्र तुल्य उपयोगी है। जो भक्त समय के और सही जानकारी के अभाव में माता की पूजा नहीं कर पाते है, उनके लिए श्रद्धा के साथ यह पाठ बहुत फायेदमंद होती है।।
।।आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।।
@ancientindia1
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एकदा दुर्वाशा ऋषि द्वारा श्रापित देवराज इंद्र ने धन- वैभव हराकर कंगाल बन गया था। माँ महालक्ष्मी उसके लिए तीनों लोक से अदृश्य हो गए थे। उस समय इंद्र ने लक्षमी माता को वापस लाने के लिए यह अष्टक रचना किया था, जिससे लक्ष्मी जी उसके पास लौट आये थे।।
ॐ श्री गणेशाय नमः
(इन्द्र उवाच:)
नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते। शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते।।1।।
(देवराज इंद्र बोले-- मैं महालक्ष्मी की पूजा करता हूं, जो महामाया का प्रतीक है और जिनकी पूजा सभी देवता करते हैं। मैं महालक्ष्मी का ध्यान करता हूं जो अपने हाथों में शंख, चक्र और गदा लिए हुए है।।)
नमस्ते गरुड़ारूढे कोलासुरभयंकरि। सर्वपापहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।2।।)
(देवराज इंद्र बोले: पक्षीराज गरुड़ जिनका वाहन है, भयानक से भयानक दानव भी जिनके भय से कांपते है। सभी पापो को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरी। सर्व दुःखहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।3।।
(देवराज इंद्र बोले: मैं उन देवी की पूजा करता हूं जो सब जानने वाली है और सभी वर देने वाली है, वह सभी दुष्टो का नाश करती है। सभी दुखो को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
सिद्धिबुधिप्रदे देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी। मंत्रमुर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।4।।
(देवराज इंद्र बोले: हे आद्यशक्ति देवी महेश्वरी महालक्ष्मी, आप शुरु व् अंत रहित है। आप योग से उत्पन्न हुई और आप ही योग की रक्षा करने वाली है। देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
आद्यंतरहित देवि आद्यशक्ति महेश्वरी। योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मी नमो:स्तु ते।।5।।
(देवराज इंद्र बोले : हे देवि ! हे अदि- अन्त- रहित आद्यशक्ति ! हे महेश्वरी, हे योग से प्रकट हुई भगवती महालक्ष्मी, तुम्भे नमस्कार है।।)
स्थूलसूक्ष्म महारौद्रे महाशक्तिमहोदरे। महापापहरे देवि महालक्ष्मी नमोस्तुते।।6।।
(देवराज इंद्र बोले: महालक्ष्मी आप जीवन की स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। आप एक महान शक्ति है और आप का स्वरुप दुष्टो के लिए महारौद्र है| सभी पापो को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्हास्वरूपिणि। परमेशि जगन्मातारमहालक्ष्मी नमोस्तुते।।7।।
(देवराज इंद्र बोले: हे परब्रम्हास्वरूपिणि देवी आप कमल पर विराजमान है। परमेश्वरि आप इस संपूर्ण ब्रह्मांड की माता हैं देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
श्वेताम्बरधरे देवी नानालङ्कारभुषिते। जगतस्थिते जगन्मातारमहालक्ष्मी नमोस्तुते।।8।।
(देवराज इंद्र बोले: हे देवी महालक्ष्मी, आप अनेको आभूषणों से सुशोभित है और श्वेत वस्त्र धारण किए है। आप इस संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है और इस संपूर्ण ब्रह्मांड की माता हैं देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार हैं।।)
।।फल स्तुति।।
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महालक्ष्मीअष्टकम स्तोत्रम् यः पठेत्भक्तिमानरः। सर्वसिद्धिमवापनोति राज्यम प्राप्तयोति सर्वदा।।9।।
(जो भी व्यक्ति इस महालक्ष्मी अष्टकम स्तोत्र का पाठ भक्तिभाव से करते है उन्हें सर्वसिद्धि प्राप्त होंगी और उनकी समस्त इच्छाएं सदैव पूरी होंगी।।)
एककालं पठेनित्यम महापापविनाशनं। द्विकालं यः पठेनित्यम धनधान्यसमन्वित: ।।10।।
(महालक्ष्मी अष्टकम का प्रतिदिन एक बार पाठ करने से भक्तो के महापापो विनाश हो जाता हैं। प्रतिदिन प्रातः व् संध्या काल यह पाठ करने से भक्तो धन और धान्य की प्राप्ति होती है।।)
त्रिकालं यः पठेनित्यम महाशत्रुविनाशनम। महालक्ष्मिरभवेर्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा।।11।।
(प्रतिदिन प्रातः, दोपहर तथा संध्या काल यह पाठ करने से भक्तो के शक्तिशाली दुश्मनों का नाश होता है और उनसे माता महालक्ष्मी सदैव प्रसन्न रहती है तथा उनके वरदान स्वरुप भक्तो के सभी कार्य शुभ होंते है।।)
अष्टक आधारित तथ्य :
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महालक्ष्मी अष्टक का पाठ देवराज इंद्र द्वारा माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए किया गया था। इस स्तोत्र में किस प्रकार इस पाठ को करने से भक्तों को फल की प्राप्ति होगी, वो बताया गया है। अपने जीवन सुखी, समृद्ध एवं खुशहाल बनाने के लिए इस अष्टकम का पाठ जीवन मन्त्र तुल्य उपयोगी है। जो भक्त समय के और सही जानकारी के अभाव में माता की पूजा नहीं कर पाते है, उनके लिए श्रद्धा के साथ यह पाठ बहुत फायेदमंद होती है।।
।।आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।।
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" *जब श्रीकृष्ण इस धरा को छोड़कर गोलोक जाने लगे, तब उन्होंने उद्धव को ज्ञानोपदेश दिया। उद्धवजी ने पूछा कि आपके जाने के बाद पृथ्वी पर कलियुग आ जायेगा , तब यह धरती उसका भार कैसे उठाएगी? तब श्रीकृष्ण ने अपनी संपूर्ण शक्ति भागवत में रख दी और अंतर्धान होकर इसमें प्रवेश कर गए। इसलिए भागवत साक्षात भगवान का शब्दमयी रूप है। भागवत का पठन-श्रवण करने से सभी पाप धुल जाते हैं। कलियुग में यही ऐसा धर्म है, जो दुःख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापों की सफाई कर देता है तथा काम-क्रोधादि शत्रुओं पर विजय दिलाता है। अन्यथा, भगवान की माया से पीछा छुड़ाना देवताओं के लिए भी कठिन है, मनुष्य तो इसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अतः इससे छूटने के लिए भी सप्ताह श्रवण का विधान किया गया है* ।"
हरे जगतपते नारायणा 🌺
@ancientindia1
हरे जगतपते नारायणा 🌺
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You would have seen Lavish Weddings in Big Kalyan Mantaps, Five Star Hotels, Resorts, look at this Wedding performed within Gaushala being the most Sacred Place, inspiring so many people to come to Gaushala, giving an opportunity for GauNandi Seva & Blessings 🙏
@ancientindia1
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श्यामसुन्दर ने आज मालिन का भेष बनाया है। सोलह शृंगार करके फूलों के हार की टोकरी सिर पर रखे हुए मालिन बनकर चले एवं श्री वृषभानु के द्वार पर, जहाँ सखियों के साथ किशोरी जी विराजमान थीं वहाँ पहुँच गये। पुकारते हुए कहा कि यह मालिनि नन्दगाँव वाली आयी हुई है। जो ब्रजबाला मेरी माला को लेकर गले में पहन ले श्यामसुन्दर उसके अधीन हो जायेंगे। जो चाहे इस बात का अनुभव आज ही कर ले। किशोरी जी ने कहा, सुनो ललिता सखी! जाकर इस मालिन को लिवा लाओ। बस फिर क्या था मालिन अपने जाल से ललिता सखी के साथ किशोरी जी के महल के भीतर पहुँच गयी। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि श्यामसुन्दर अत्यन्त छलिया हैं एवं किशोरी जी अत्यन्त भोली-भाली हैं, इसी से छली जाती हैं।
जय श्री राधे ✍️🍹
@ancientindia1
जय श्री राधे ✍️🍹
@ancientindia1
" *वैतरणी नदी कहां बहती है* (Vaitarni River Place)
*गरूड़ पुराण के अनुसार वैतरणी नदी 86,000 योजन दूर यमलोक में बहती है. पृथ्वी पर मौजूद नदियों में जल होता है लेकिन वैतरणी नदी खून और मवाद से भरी है. मृत्यु के बाद जब जीवात्मा यमलोक की यात्रा तय करती है तो उसे वैतरणी नदी से होकर गुजरना पड़ता है. इस नदी में भयानक कृमि, मगरमच्छ और वज्र जैसी चोंचवाले गिद्ध रहते हैं.*
*इन लोगों को कष्ट देती है वैतरणी नदी (Vaitarni River Interesting facts)*
*मृत्यु के बाद जब यमदूत पापी जीवात्मा को लेकर वैतरणी नदी के पास से गुजरते हैं तो नदी का रक्त खौलने लगता है. कहते हैं जो जीवन में बुरे कर्म करता है, धर्म कर्म, दान-पुण्य के काम नहीं करता उस पापी आत्मा को वैतरणी नदी पार करने में बहुत कष्ट झेलना पड़ता है. पापी आत्मा को देख यह नदी उग्र हो जाती है. इसके बाद यमदूत नाक में कांटा फंसाकर जीवात्मा को खींचते हुए नदी के ऊपर से ले जाते हैं* .
हरे जगतपते नारायणा 🌺
" *वैतरणी नदी की पीड़ा से बचने के लिए करें ये काम (Yamlok Vaitarni River)*
*गुरुड़ पुराण में बताया गया है वैतरणी नदी का स्वभाव हमेशा एक जैसा नहीं होता. जो लोग अपने जीवनकाल में ईश्वर की भक्ति, दान करते हैं उन्हें मृत्यु के बाद यमलोक की यात्रा के दौरान कोई पीड़ा नहीं सहनी पड़ती. शास्त्रों में गौ दान महादान माना गया है. दान करने वालों को यमदूत नौका पर बैठाकर वैतरणी नदी पार कराते हैं. इस दौरान वह शांत होती है* .
हरि शरणम् 🍂
" *गरुड़ पुराण के अनुसार, धरती के अलावा भी कई और स्थानों पर नदी बहती है। हम जिस नदी की बात कर रहे हैं वह यमलोक से नर्क तक बहती है* ।
*धार्मिक मान्यताओं के अनुसार , इस नदी का नाम वैतरणी नदी है जो सौ योजना यानी कि 120 कि।मी। लंबी है और रक्त से भरी हुई है* ।
*गरुड़ पुराण में बताया गया है कि इस नदी का एक भाग धरती से होता हुआ यमलोक और फिर वहां से नर्क के द्वार तक जाता है* ।
*धरती पर मौजूद इस नदी का भाग आज तक कोई भी नहीं ढूंढ पाया है। ऐसा माना जाता है कि इस नदी का पृथ्वी पर स्थित हिस्सा देवभूमि में कहीं है।*
*गरुड़ पुराण के अनुसार, जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब उसकी आत्मा को यमलोक में यमराज के सामने पेश किया जाता है* ।"
हरे जगतपते नारायणा 🐧🍀🌺🍹
@ancientindia1
*गरूड़ पुराण के अनुसार वैतरणी नदी 86,000 योजन दूर यमलोक में बहती है. पृथ्वी पर मौजूद नदियों में जल होता है लेकिन वैतरणी नदी खून और मवाद से भरी है. मृत्यु के बाद जब जीवात्मा यमलोक की यात्रा तय करती है तो उसे वैतरणी नदी से होकर गुजरना पड़ता है. इस नदी में भयानक कृमि, मगरमच्छ और वज्र जैसी चोंचवाले गिद्ध रहते हैं.*
*इन लोगों को कष्ट देती है वैतरणी नदी (Vaitarni River Interesting facts)*
*मृत्यु के बाद जब यमदूत पापी जीवात्मा को लेकर वैतरणी नदी के पास से गुजरते हैं तो नदी का रक्त खौलने लगता है. कहते हैं जो जीवन में बुरे कर्म करता है, धर्म कर्म, दान-पुण्य के काम नहीं करता उस पापी आत्मा को वैतरणी नदी पार करने में बहुत कष्ट झेलना पड़ता है. पापी आत्मा को देख यह नदी उग्र हो जाती है. इसके बाद यमदूत नाक में कांटा फंसाकर जीवात्मा को खींचते हुए नदी के ऊपर से ले जाते हैं* .
हरे जगतपते नारायणा 🌺
" *वैतरणी नदी की पीड़ा से बचने के लिए करें ये काम (Yamlok Vaitarni River)*
*गुरुड़ पुराण में बताया गया है वैतरणी नदी का स्वभाव हमेशा एक जैसा नहीं होता. जो लोग अपने जीवनकाल में ईश्वर की भक्ति, दान करते हैं उन्हें मृत्यु के बाद यमलोक की यात्रा के दौरान कोई पीड़ा नहीं सहनी पड़ती. शास्त्रों में गौ दान महादान माना गया है. दान करने वालों को यमदूत नौका पर बैठाकर वैतरणी नदी पार कराते हैं. इस दौरान वह शांत होती है* .
हरि शरणम् 🍂
" *गरुड़ पुराण के अनुसार, धरती के अलावा भी कई और स्थानों पर नदी बहती है। हम जिस नदी की बात कर रहे हैं वह यमलोक से नर्क तक बहती है* ।
*धार्मिक मान्यताओं के अनुसार , इस नदी का नाम वैतरणी नदी है जो सौ योजना यानी कि 120 कि।मी। लंबी है और रक्त से भरी हुई है* ।
*गरुड़ पुराण में बताया गया है कि इस नदी का एक भाग धरती से होता हुआ यमलोक और फिर वहां से नर्क के द्वार तक जाता है* ।
*धरती पर मौजूद इस नदी का भाग आज तक कोई भी नहीं ढूंढ पाया है। ऐसा माना जाता है कि इस नदी का पृथ्वी पर स्थित हिस्सा देवभूमि में कहीं है।*
*गरुड़ पुराण के अनुसार, जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब उसकी आत्मा को यमलोक में यमराज के सामने पेश किया जाता है* ।"
हरे जगतपते नारायणा 🐧🍀🌺🍹
@ancientindia1
🥟Balushai/Balushahi/Badusha
Ingredients
• All purpose flour – 1 cup
• Ghee – ½ cup
• Ghee for frying – 1 ½ cup
• Sugar – ¾ cup
• Plain yogurt – ½ cup
• Almonds-pistachio chopped cardamom powder – 6-7
Preparation
1. Add ghee and plain yogurts to all-purpose flour.
2. Knead the dough until soft.
3. Make 20 dough balls and flatten them between palms.
4. Heat the ghee in the frying pan and fry the flattened balls on medium heat.
5. Add sugar in water and boil to make the syrup.
6. Add cardamom powder to the sugar syrup and dip all fried balls into the syrup.
7. Balushai is ready.
8. Keep all ballushai in a plate and decorate with crushed almonds and pistachio.
@ancientindia1
Ingredients
• All purpose flour – 1 cup
• Ghee – ½ cup
• Ghee for frying – 1 ½ cup
• Sugar – ¾ cup
• Plain yogurt – ½ cup
• Almonds-pistachio chopped cardamom powder – 6-7
Preparation
1. Add ghee and plain yogurts to all-purpose flour.
2. Knead the dough until soft.
3. Make 20 dough balls and flatten them between palms.
4. Heat the ghee in the frying pan and fry the flattened balls on medium heat.
5. Add sugar in water and boil to make the syrup.
6. Add cardamom powder to the sugar syrup and dip all fried balls into the syrup.
7. Balushai is ready.
8. Keep all ballushai in a plate and decorate with crushed almonds and pistachio.
@ancientindia1
"" *प्रह्लाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन"* 💐"
" *भाइयों! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगता है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है। यह जीव सूक्ष्म शरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण। इसलिये निष्कामभाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम-सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पंचभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं। देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व- कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है* ।
*दैत्यबालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। इसलिये दानव-बन्धुओं! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो। भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गोपालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे* ।
हरे जगतपते नारायणा 🌷
@ancientindia1
" *भाइयों! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगता है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है। यह जीव सूक्ष्म शरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण। इसलिये निष्कामभाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम-सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पंचभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं। देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व- कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है* ।
*दैत्यबालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। इसलिये दानव-बन्धुओं! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो। भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गोपालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे* ।
हरे जगतपते नारायणा 🌷
@ancientindia1
अग्नि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्याय विस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्याताश्चर्तुदश ।।
विभूति योग आयुर्वेदा धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः।
अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः ।। (विष्णु पुराण-3.6.27.28)
"शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्ति, ज्योतिष और छंद, ये छः प्रकार की विद्याओं को वेदों का अंग कहा जाता है। ऋग, यजुर, साम, अथर्व ये वैदिक ज्ञान की चार शाखाएँ हैं। मीमांसा, न्याय, धर्म शास्त्र और पुराणों सहित प्रमुख चौदह विद्याएँ हैं।"
इन विद्याओं का अभ्यास बुद्धि, दिव्य ज्ञान और धर्म के मार्ग के प्रति जागरूकता को बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त आध्यत्मिक ज्ञान मनुष्य को माया के बंधनों से मुक्त कर उसे अमरत्व प्रदान करता है। इस प्रकार से यह पहले उल्लिखित विद्याओं में सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवतम् में भी इसका उल्लेख किया गया है ...
@ancientindia1
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्याताश्चर्तुदश ।।
विभूति योग आयुर्वेदा धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः।
अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः ।। (विष्णु पुराण-3.6.27.28)
"शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्ति, ज्योतिष और छंद, ये छः प्रकार की विद्याओं को वेदों का अंग कहा जाता है। ऋग, यजुर, साम, अथर्व ये वैदिक ज्ञान की चार शाखाएँ हैं। मीमांसा, न्याय, धर्म शास्त्र और पुराणों सहित प्रमुख चौदह विद्याएँ हैं।"
इन विद्याओं का अभ्यास बुद्धि, दिव्य ज्ञान और धर्म के मार्ग के प्रति जागरूकता को बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त आध्यत्मिक ज्ञान मनुष्य को माया के बंधनों से मुक्त कर उसे अमरत्व प्रदान करता है। इस प्रकार से यह पहले उल्लिखित विद्याओं में सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवतम् में भी इसका उल्लेख किया गया है ...
@ancientindia1
" *काशी तो काशी है, काशी अविनाशी है’*
*काशी को स्वयं भगवान शिव ने ‘अविनाशी’ और ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा है । ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ स्वरूप होने के कारण प्रलयकाल में भी काशी नष्ट नहीं होती है; क्योंकि प्रलय के समय जैसे-जैसे एकार्णव का जल बढ़ता है, वैसे-वैसे इस क्षेत्र को भगवान शंकर अपने त्रिशूल पर उठाते जाते हैं* ।
*स्कंद पुराण के अनुसार काशी नगरी का स्वरूप सतयुग में त्रिशूल के आकार का, त्रेता में चक्र के आकार का, द्वापर में रथ के आकार का तथा कलियुग में शंख के आकार का होता है* ।
*संसार की सबसे प्राचीन नगरी है काशी*
*काशी को संसार की सबसे प्राचीन नगरी कहा जाता है; क्योंकि वेदों में भी इसका कई जगह उल्लेख है । पौराणिक मान्यता के अनुसार पहले यह भगवान माधव की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरने से वह स्थान ‘बिंदु सरोवर’ बन गया और भगवान यहा ‘बिंदुमाधव’ के नाम से प्रतिष्ठित हुए* ।
*एक बार भगवान शंकर ने ब्रह्माजी का पांचवा सिर अपने नाखूनों से काट दिया । तब वह कटा सिर शंकर जी के हाथ से चिपक गया । वे १२ वर्षों तक बदरिकाश्रम, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों में घूमते रहे, परंतु वह सिर उनके हाथ से अलग नहीं हुआ । ब्रह्मदेव का सिर काटने से ब्रह्महत्या स्त्री रूप धारण करके उनका पीछा करने लगी* ।
*अंत में जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और स्नान करते ही उनके हाथ से चिपका हुआ कपाल भी अलग हो गया । जिस स्थान पर वह कपाल छूटा, वह ‘कपालमोचन तीर्थ’ कहलाया । तब शंकर जी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना करके उस पुरी को अपने नित्य निवास के लिए मांग लिया* "
*जय भोले बाबा की ✍️*
@ancientindia1
*काशी को स्वयं भगवान शिव ने ‘अविनाशी’ और ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा है । ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ स्वरूप होने के कारण प्रलयकाल में भी काशी नष्ट नहीं होती है; क्योंकि प्रलय के समय जैसे-जैसे एकार्णव का जल बढ़ता है, वैसे-वैसे इस क्षेत्र को भगवान शंकर अपने त्रिशूल पर उठाते जाते हैं* ।
*स्कंद पुराण के अनुसार काशी नगरी का स्वरूप सतयुग में त्रिशूल के आकार का, त्रेता में चक्र के आकार का, द्वापर में रथ के आकार का तथा कलियुग में शंख के आकार का होता है* ।
*संसार की सबसे प्राचीन नगरी है काशी*
*काशी को संसार की सबसे प्राचीन नगरी कहा जाता है; क्योंकि वेदों में भी इसका कई जगह उल्लेख है । पौराणिक मान्यता के अनुसार पहले यह भगवान माधव की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरने से वह स्थान ‘बिंदु सरोवर’ बन गया और भगवान यहा ‘बिंदुमाधव’ के नाम से प्रतिष्ठित हुए* ।
*एक बार भगवान शंकर ने ब्रह्माजी का पांचवा सिर अपने नाखूनों से काट दिया । तब वह कटा सिर शंकर जी के हाथ से चिपक गया । वे १२ वर्षों तक बदरिकाश्रम, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों में घूमते रहे, परंतु वह सिर उनके हाथ से अलग नहीं हुआ । ब्रह्मदेव का सिर काटने से ब्रह्महत्या स्त्री रूप धारण करके उनका पीछा करने लगी* ।
*अंत में जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और स्नान करते ही उनके हाथ से चिपका हुआ कपाल भी अलग हो गया । जिस स्थान पर वह कपाल छूटा, वह ‘कपालमोचन तीर्थ’ कहलाया । तब शंकर जी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना करके उस पुरी को अपने नित्य निवास के लिए मांग लिया* "
*जय भोले बाबा की ✍️*
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Mahajanapadas were ancient Indian kingdoms or republics that emerged around the 6th century BCE after the consolidation of the various janapadas established in the Later Vedic period. Located mostly across the Indo-Gangetic plains and northern Deccan region, these Janapadas evolved into 16 major states such as Magadha, Kosala, Kuru, Panchala, etc. The Mahajanapadas established large territories with fortified capital cities, developed administrative structures and standing armies supported by flourishing agriculture and commerce. They consolidated political power and transformed tribal entities into kingdoms and oligarchic republics, culminating in the establishment of mighty empires like Magadha under the Mauryas.
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